बुधवार, 6 अप्रैल 2011

समलैंगिकता की सनसनी और सच

पिछले कुछेक वर्षों से भारत में भी अमेरिकी तर्ज पर समलैंगिकों के अधिकारों को लेकर, बुद्धिजीवियों की एक खास बिरादरी संगठित होकर, समवेत-स्वर में लगातार माँग करती आ रही है कि भारतीय न्याय ग्रंथों से भी उस कानून को अविलंब हटा दिया जाए, जो 'समलैंगिकता को 'अप्राकृतिक-मैथुन` मानकर, उसे अपराध की श्रेणी में रखता चला आ रहा है। वे इस कानून को 'राज्य` द्वारा मानवता के विरुद्ध किया जा रहा एक ज न्य अपराध मानते हैं। अत: इसका निरस्त किया जाना जरूरी है।

इस माँग के औचित्य पर विचार करने के पहले, हम यहाँ यह भी देख लें कि गत दशकों में अमेरिकी समाज में 'समलैंगिकता को वैध बनाने के लिए किस तरह की रणनीतिक कवायदें की गइंर्। यह सब एक सुनिश्चित योजना के अंतर्गत ही हुआ। दरअसल, 'समलैंगिकता किसी भी व्यक्ति में 'जन्मना नहीं होती, बल्कि वह बचपन के निर्दोष कालखंड में अज्ञानतावश हो जाने वाली किसी त्रुटि के कारण उसे उसकी आदत का हिस्सा मान लिया जाता है। इस तरह यह 'नादानी में अपना लिए जाने वाली` वैकल्पिक यौनिकता है, जिसे चिकित्सकीय दृष्टि 'प्राकृतिक` या 'नैसर्गिक` नहीं मानती। जब व्यक्ति इसमें फँस जाता है तो बुनियादी रूप से उसके लिए यह एक किस्म की यातना ही होती है, जिसमें उसके समक्ष बार-बार अपना यौन सहचर बदलने की विवशता भी जुड़ी होती है। इसके अलावा, इसमें विपरीत सेक्स के साथ किए गए दैहिक आचरण की-सी संतुष्टि भी बरामद नहीं हो पाती।


वैसे, तमाम सर्वेक्षण और इस विषय पर एकाग्र अध्ययन बताते हैं कि को भी व्यक्ति 'स्वेच्छया समलैंगिक नहीं बनता। किशोरवय में पहली यौन-उत्तेजना और आकर्षण विपरीत सेक्स को लेकर ही उपजता है, समलैंगिक के लिए नहीं। न्यूयॉर्क के एलबर्ट आइंस्टाइन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ। चार्ल्स सोकाराइड्स की स्पष्टोक्ति है कि यौन-उद्योगों से जुड़े कुछ तेज-तर्रार शातिरों की यह एक धूर्त वैचारिकी है, जो समलैंगिकों को पैथालॉजिकल बताती है। इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता।


अमेरिकी समाज में समलैंगिकता की समस्या के ख्यात अध्येता डॉ. चार्ल्स अपनी पुस्तक 'होमोसेक्सुअल्टी : फ्रीडम टू फॉर` में अपना सूक्ष्म वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 'अमेरिकी समाज में यह तथाकथित समलैंगिक क्रांति` (?) बस यूँ ही हवा में नहीं गूँजने लगी, बल्कि यह कुछ मुट्ठी भर शातिर बौद्धिकों की 'मानववाद` के नाम पर शुरू की ग वकालत का परिणाम था, जिनमें से अधिकांश स्वयं भी समलैंगिक ही थे। ये लोग 'ट्राय एनी थिंग सेक्सुअल` के नाम पर शुरू की ग यौनिक-अराजकता को, नारी स्वातंत्र्य के विरुद्ध दिए जा रहे एक मुँहतोड़ उत्तर की शक्ल में पेश कर रहे थे। पश्चिम में, जब पुरुष की बराबरी को मुहिम के तहत स्त्री 'मर्दाना बनने के नाम पर, अपने कार्य-व्यवहार और रहन-सहन में भी इतनी अधिक 'पुरुषवत या 'पौरुषेय` होने लगी कि जिसके चलते उसका समूचा वस्त्र विन्यास भी पुरुषों की तरह होने लगा। नतीजतन, स्त्री की जो 'स्त्रैण-छवि` पुरुषों को यौनिक उत्तेजना देती थी, शनै: शनै: उसका लोप होने लगा। उसका आकर्षण घट गया।

कहना न होगा कि वेशभूषा की भिन्नता के जरिए, किशोरवय में लड़के और लड़की के बीच, जो प्रकट फर्क दिखा देता था, वह धूमिल हो गया। इस स्थिति ने लड़के और लड़के के बीच यौन-निकटता बढ़ाने में इमदाद की, जिसने अंतत: उन्हें 'समलैंगिकता की ओर हाँक दिया। निश्चय ही इसमें फैशन-व्यवसाय की भी काफी अहम भूमिका थी। फिर इस निकटता में अपने 'समलैंगिक-सहचर` से यौन-संबंध बनाते समय गर्भ रह जाने की महाविपत्ति से भी बचाव हो गया था। इस दोनों में से किसी को भी पिल्स लेने की आवश्यकता नहीं होती थी। तब 'एड्स` का आशीर्वाद भी नहीं था कि किशोरों को कंडोम को जेब में रखने की आज की-सी आजादी उपलब्ध होती। बहरहाल, इस यौन-मैत्री में रिस्क नहीं थी। कक्षा के 'क्लासमेट` को 'सेक्समेट` बनाया जा सकता था।

इसके साथ ही अमेरिकी समाज में एकाएक यौन-पंडितों की एक पूरी पंक्ति आगे आई , जिसमें अल्फ्रेंड किन्से, फ्रिट्स पर्ल तथा नार्मन ब्राऊन जैसे लोग थे। इन्होंने एक न स्थापना दी कि यदि ये संबंध 'फीलगुड` हैं, देन डू इट (भाजपा को पता नहीं था कि 'फीलगुड` जैसा सामासिक पद सबसे पहले सेक्स के संदर्भ में ही चलन में आया था।) इसमें भला अप्राकृतिक जैसा क्या है? 'फीलगुड` की वकालत करने वालों में विख्यात मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री हर्बर्ट मार्क्यूज भी शामिल हो गए, जिनकी पुस्तक 'वन डाइमेंशनल मैन : फ्रायड की वैचारिकी से भी अहले दर्जे का सम्मान और ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। इन सब लोगों ने संगठित होकर, अपने तर्कों के सहारे समलैंगिकता के साथ जुड़ा, 'अप्राकृतिक-मैथुन` वाला लांछन भी पोंछ दिया।

कहने की जरूरत नहीं कि यह भी एक रोचक दुर्योग ही रहा आया कि 'समलैंगिकता के इन पैरोकारों में से कुछेक लोगों के साथ समलैंगिक होने की कुख्याति भी जुड़ी थी, जो अभी तक केवल 'ऑफ दि रिकॉर्ड` थी, जिसका दर्जा कानाफूसी तक ही था-ठीक ऐसी ही कानाफूसी तक, जो भारत में हमारे समय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली उर्दू शायर फिराक गोरखपुरी के नाम के साथ चलती रही आ है, लेकिन इन लोगों ने अपने कथित बौद्धिक आंदोलन को शक्ति-सम्पन्न बनाने के लिए किया यह कि इन्होंने अभी तक 'कुटैव` समझी जाने वाली अपनी लत को महिमामंडित करते हुए सार्वजनिक कर दिया। कहा, 'हम समलैंगिक हैं और इसको लेकर हममें को अपराध-बोध नहीं है। यह हमारी इच्छितऱ्यौन स्वतंत्रता है, क्योंकि यौनांग का अंतिम अभीष्ट आनंद ही होता है- और इसमें भी हम आनंद प्राप्त करते हैं।`

बहरहाल, इस समूचे विवाद में रस लेकर, उसे तूल देने के लिए कुछेक प्रथम क्षेणी के प्रकाशकों ने 'मेक द होलवर्ल्ड गे` अर्थात् 'समूचे संसार को समलैंगिक बनाओ` के नारे को ोषणा-पत्र का रूप देकर छाप दिया। डेनिस अल्टमैन की पुस्तक 'होमो-सेक्चुअलाइजेशन आूफ अमेरिका भी इसी वक्त आ । अल्टमैन स्वयं भी समलैंगिक थे। उन्होंने १९८२ में कहा- 'समलैंगिक संबंध, अमेरिका में राज्य के सीमा से अधिक हस्तक्षेप के कारण आततायी बन चुकी विवाह-संस्था की नींव हिला डालने वाला, जबर्दस्त 'शार्ट-लिव्हड-सेक्सुअल-एडवेंचर` है। शादी के साथ जुड़ चुकी रेलू हिंसा वाले कानून के पेंचीदा पचड़ों में पड़ने से बचने का एकमात्र निरापद रास्ता है- स्विंगिंग-सिंगल हो जाना।`

बहरहाल, अब पुराना स्विंगिंग-सिंगल बनाम 'रमण-कुमार`, 'अमेरिकन-सिंगल्स` की तरह प्रसिद्ध हो चुका है। यह आकस्मिक नहीं था कि इन तमाम धुरंधरों ने व्याख्याओं का अंबार लगा दिया कि 'समलैंगिकता, निर्मम परंपरागत यौनिक-बंधन से मुक्ति का मार्ग है। 'यह मनुष्य` के स्वभाव का पुनराविष्कार है। उन्होंने कहा- 'समलैंगिक होना ठीक वैसा ही है, जैसे को व्यक्ति 'वामहस्त` होता है। लेफ्ट हेंडर।` कुल मिलाकर, 'समलैंगिकता से जुड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संकोच के ध्वंस के लिए तरह-तरह के विचारधारात्मक प्रहार किए जाने लगे। कुछ चर्चित कानूनविदों ने चर्चा में आने के लिए बहस को अपनी ओर से कुछ ज्यादा ही सुलगा दिया। लगे हाथ टेलीविजन चैनलों तथा हॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं ने इस पूरे विवाद और विषय को लपक लिया और धड़ाधड़ समलैंगिक व्यक्ति के जीवन को आधार बनाकर, उनके अधिकारों को वैध-माँग के रूप में प्रस्तुत करना आरंभ कर दिया। मुख्यधारा के नामचिु प्रकाशकों ने इसे अपने व्यापार का स्वर्ण अवसर मानकर बाजार को 'समलैंगिकता के पक्ष-विपक्ष पर एकाग्र पुस्तकों से पाट दिया। इस सबसे एक न बिरादरी बनी, जिसमें एकता का आधार बना, यौेनाचरण। यह बिरादरी 'जी-एल-बी-टी` बनाम 'गे, लेस्बियन, बाइ-सेक्सुअल तथा ट्रांस-ह्यूमन-सेक्सुअल कहला ।

इस सारे तह-ओ-बाल और गहमा-गहमी को पॉल गुडमैन जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षा के क्षेत्र में हाँक दिया और अचानक सेक्स-एजुकेशन की जरूरत और अनिवार्यता के पक्ष में लंबे-लंबे लेख तथा विमर्श होने लगे। संगोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ तथा जनचर्चाएँ होने लगीं। अमेरिकी टेलिविजन के लिए यह विषय 'दमदार और दामदार` भी बनने लगा। चैनलों पर जंग छिड़ ग । समाचार कक्षों में प्रीतिकर चख-चख चलने लगी। वही सब छोटे पर्दे पर भी दृश्यमान होने लगा। नैतिकता का प्रश्न उठाने वालों को 'होमो-फोबिया के शिकार कहकर, उनकी आपत्तियों को खारिज किया जाने लगा। उन्होंने कहा कि 'समलैंगिक` ठीक वैसे ही हैं, जैसे कि को गोरा होता है, या को काला। अत: इन्हें भी सभी किस्म की स्वतंत्रताओं को एंजाय करने का पूरा-पूरा अधिकार है। विद्यालयों में तेरह वर्ष की उम्र फलांग कर आते बच्चे ने अपने मॉम और डैड के सामने गरदन उठाकर ोषणा करना शुरू कर दी 'हे मॉम, आय`म गोइंग इन सपोर्ट आूफ गे-मूव्हमेण्ट`।

यह किशोरवय की दैहिकता से फूटती यौन-उत्तेजना का नया प्रबंधन था। उनका ब्रेनवाशिंग किया जा रहा था। ये युवा होने की ओर बढ़ने वाला वर्ग ही समलैंगिकता की सिद्धांतिकी का राजनीतिक मानचित्र बनाने वाला था। अत: यह वर्ग ही आंदोलन का अभीष्ट था। वे कहने लगे, 'समलैंगिकता आबादी रोकने में एक अचूक भूमिका निभाती है। तभी 'फिलाडेल्फिया नामक फिल्म आ , जिसमें सुनियोजित मनोवैज्ञानिक युक्तियाँ थीं, जो करुणा का कारोबार करती हु निर्विघ्न ढंग से ब्रेनवाश करती थीं। मसलन, फिल्मों में हर हत्यारे, गुंडे या बलात्कार करने वाले के जीवन के नैपथ्य में को न को करुण कथा होती ही है, जो डबडबाती आँख के आँसू से पात्र के अपराध को धो देती है। उदाहरण के लिए भारत का दर्शक कहेगा, 'भैया, जब औरत हाथ तक नहीं धरने देती तो अगला आदमी क्या करेगा- या तो हाथ आजमाइश करे या फिर 'लौण्डेबाजी`।

डॉ. चार्ल्स कहते हैं, मैंने चार दशकों के अपने चिकित्सकीय जीवन के अनुभव के दौरान यह पाया कि वे अपनी समलैंगिक जीवन पद्धति से सुखी नहीं है। दरअसल, एक चिकित्सक के समक्ष उनकी पीड़ाएँ पारदर्शी हो उठती हैं और वे सचा के बखान पर उतर आते हैं। वे उस कुचक्र से बाहर आना चाहते हैं। एक हजार में से ९९७ लोग अपनी समलैंगिकता को लेकर दु:खी हैं। बहरहाल, उपचार के पश्चात ऐसे सैकड़ों रोगी हैं, जिन्होंने विवाह रचाए और वे सुंदर और स्वस्थ्य संतानों के पिता हैं। मैंने यह भी पाया कि वस्तुत: समलैंगिक बनने में उनके माता-पिताओं की भूमिका ज्यादा रही है, जिन्होंने किशोरवय में पूर्ण स्वतंत्रता की माँग करने वाले अपने बच्चों के साथ सख्त सहमति प्रकट करने की बजाय उनकी 'स्वतंत्रता का सम्मान` करने का जीवनघाती ढोंग किया। समलैंगिकों में से अधिकांशों ने कहा कि वे झूठी स्वतंत्रता में जी रहे हैं, जबकि यह एक दासत्व ही है। यह वैकल्पिक जीवन पद्धति नहीं, सिर्फ आत्मघात है। समलैंगिकता जन्मना नहीं है। यह मीडिया द्वारा बढ़-चढ़कर बेचे गए झूठ का परिणाम है। गे-जीन थिअरी अमेरिकी समाज तथा दुनिया के साथ सबसे बड़ा छल है।

एक जगह डॉ। चार्ल्स कहते हैं, 'दरअसल हकीकत यह है कि समलैंगिको के अधिकारों की ऊँची आवाजों में माँग करने वाले मुझे चुप करना चाहते हैं, क्योंकि वे यौन उद्योग की तरफ से तथा उनके हितों की भाषा में बोल रहे हैं। वे मनुष्य के जीवन से उसकी नैसर्गिकता का अपहरण कर रहे है। वे मानवता के कल्याण नहीं, अपने लालच में लगे हुए हैं और उसी के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें प्रकृति या श्वर ने समलैंगिक (गे) नहीं बनाया है, इन्हीं लोगों ने बताया है। सोचिए, तब क्या होगा, जब सहमति से होने वाले सेक्स के लिए उम्र की सीमा चौदह वर्ष निर्धारित कर दी जाएगी। इस माँग से हमारे विद्यालय पशुबाड़े (एनीमल फार्म) में बदल जाएँगे।`

दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तान में एड्स तथा सेक्स टॉय के व्यापार के लिए राज्य स्वयं ही समलैंगिक संबंधों को कानून की परिधि से बाहर निकालने का इरादा प्रकट कर रहा है। वह समलैगिकों की 'ऑफिशियल आवाज` बन रहा है, ताकि अरबों डॉलर का योैन उद्योग यहाँ भी अपनी जड़ें जमा सके। यह सब धतकरम एड्स की आड़ में हो रहा है, जिसके चलते वहाँ की विकृति एड्स की स्वीकृति बन जाए। आज हम अभी भारत की आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को रोटी, कपड़ा, मकान तो छोड़िए शुद्ध पीने योग्य पानी नहीं दे सके हैं। ऐसे में उनकी इन लड़ाइयों को स्थगित करके समलैंगिकता की लड़ा लड़ना कितना विवेकपूर्ण कहा जा सकता है? क्या हम इसको लेकर को विवेक सम्मत विरोध नहीं कर सकते?

खबरों के आगे खिंचता नेपथ्य

दुनिया भर में, 'विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र' की तरह ख्यात भारत ने, जब एक 'नव-स्वतंत्र राष्ट्र' की तरह, विश्व-'राजनीति में जन्म लिया, तब निश्चय ही न केवल 'पराजित' बल्कि, लगभग हकाल कर बाहर कर दी गयी 'औपनिवेशिक-सत्ता' के कर्णधारों की आंखें, इसकी 'असफलता' को देखने के लिए बहुत आतुर थीं। चर्चिल की बौखलाहटों को व्यक्त करती हुई, तब की कई उक्तियाँ इतिहास के सफों पर आज भी दर्ज हैं। अलबत्ता, उनकी 'अपशगुनी उम्मीदों' के बर-खिलाफ, जब-जब इस 'महादेश' में संसदीय चुनाव हुए, तब-तब इस बात की पुष्टि काफी दृढ़ता के साथ हुई कि बावजूद 'सदियों की पराधीनता' के, भारतीय-जनमानस में एक अदम्य 'लोकतांत्रिक-आस्था' है, जो केवल उसके सोच भर में स्पंदित नहीं है, बल्कि, उसकी तमाम संस्थाओं में, वह लगभग 'दहाड़ती' हुई उपस्थित है। कहने की जरूरत नहीं कि उसके 'चौथे खंभे' में तो 'नृसिंह' की-सी शक्ति है, जो सत्ता के पेट को चीर सकती है। आपातकाल में तो उसने यह पूरी शिद्दत से प्रमाणित कर दिया था कि न केवल 'लिख कर' बल्कि इसके विपरीत 'न लिखकर' भी वह अपनी आवाज को इस तरह बुलन्द कर सकती है, जो हजारों-हजार लिखे गए लफ्जों से कहीं ज्यादा प्रखर प्रतिरोध का रूप रख सकती है। सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ने से 'मौन की तीखी अनुगूंज' राष्ट्रव्यापी बन गयी थी।


बहरहाल, इन्दौर नगर में पिछले सप्ताह 'गांधी-प्रतिमा स्थल' पर कतिपय बुद्धिजीवियों ने देश भर के कोई बीस-बाइस हिन्दी समाचार पत्रों की एक-एक प्रति जुटाकर, तमाम अखबारों के द्वारा 'अकारण' ही तेजी से किये जा रहे हिन्दी के हिंग्लिशीकरण बनाम 'क्रिओलीकरण` के जरिए, जिस 'बखड़ैली भाषा' को जन्म देने में लगे है, उसके प्रति हिन्दी भाषाभाषी पाठकोंे की पीड़ा और प्रतिकार को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करने के लिए, उनकी होली जलायी। निश्चय ही प्रतिकार की इस 'प्रतीकात्मकता' से जो लोग असहमत थे, वे इसमें शामिल नहीं हुए। उनके पास अपने तर्क और अपनी स्पष्ट मान्यताएँ थीं, जबकि अखबारों की 'होली' जलाने वालों के पास अपनी सिद्धान्तिकी थी। दोनों के पक्ष-विपक्ष में एक गंभीर विमर्श भी बन सकता था। बहरहाल, घटना छोटी-सी और निर्विघ्न सी थी, लेकिन भारतीय पत्रकारिता के विगत तिरेसठ साल के इतिहास में पहली बार घट रही थी। लेकिन देश के किसी भी हिन्दी अखबार ने (नईदुनिया को छोड़कर) यह खबर प्रकाशित नहीं की। इण्टरनेट के ब्लागों और 'फेस बुक' पर अवश्य इस पर बहस के लिए अवकाश (स्पेस) निकला लेकिन, आरंभ में उसका रूप जिस तरह की गंभीरता लिए हुए शुरू हुआ था, दूसरे दिन वह 'भर्त्सना' और 'भड़ास' की शक्ल अख्तियार कर चुका था। उसमें मनोरंजन और मसखरी भी शामिल हो चुकी थी। अत: पूरी बात विचार के दायरे से ही लगभग बाहर हो गयी।

यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि कदाचित् सम्पूर्ण हिन्दी समाचार-पत्रों ने, इस कार्यवाही को अपनी सत्ता के प्रति एक 'बदअखलाक चुनौती' की तरह लिया है। हो सकता है समाचार-पत्रों ने, चूंकि वे समय और समाज में विचार के लिए वाजिब जगह बनाने की जिम्मेदारी अपने ही हिस्से में समझते हैं, अत: वे इस कार्यवाही के खिलाफ निस्संदेह ठोस बौद्धिक-असहमति रखते हैं। लेकिन प्रश्न उठता है कि जो समाचार पत्र, वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन, `समय और समाज` की खाल खींच कर उसमें नैतिकता का नमक डालने पर तत्पर रहता है, क्या वह तिरेसठ वर्ष के अपने जीवनकाल में मात्र एक दिन किसी एक शहर में अपने पाठक की असहमति और उसका प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक बरदाश्त नहीं कर सकता? जबकि, वह इस महाकाय जनतंत्र की रक्षा का एक सर्वाधिक शक्तिशाली कवच है? क्या समूचा समाचार-जगत `विचार` के स्तर पर, व्यक्ति की सी स्वभावगत `एकरूपता` रखता है ? जबकि, वह व्यक्ति नहीं संस्था है। मुझे यहाँ याद आता है कि नेहरू के विषय में कहा जाता रहा है कि उनका अहम् काफी अदम्य था और वे अमूमन अपनी असहमति की अवमानना पर तिक्त हो जाते थे। एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। `टाइम्स ऑफ इण्डिया` के तब के ख्यात सम्पादक मुलगांवकर प्रधानमंत्री आवास पर स्वल्पाहार हेतु आमंत्रित थे और जिस सुबह वे आमंत्रित थे, ठीक उसी दिन उन्होंने नेहरू तथा `नेहरू-सरकार` के विरूद्ध अपने अखबार में बहुत तीखी सम्पादकीय टिप्पणी छाप दी। लगभग आठ बजे प्रधानमंत्री-आवास से दूरभाष पर सूचना दी गयी कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से पूर्व में स्वल्पाहार के समय प्रधानमंत्री के साथ निर्धारित भेंट निरस्त की जा रही है। यह सूचना पाते ही श्री मुलगांवकर ने नेहरू को फोन किया कि ठीक है कि आज का सम्पादकीय आपके तथा आपकी सरकार के खिलाफ है, लेकिन इसका हमारे नाश्ते से क्या लेना-देना है ? बहरहाल, नेहरू ऐसे थे कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर रहते हुए भी ठिठक कर बुद्धिजीवियों द्वारा की गई अपनी आलोचना सुन सकते थे। कदाचित् उनके इसी जनतांत्रिक धैर्य को ध्यान में रखकर दुनिया भर की प्रेस उन्हें `डेमोक्रेटिक प्रॉफेट` के विशेषण से सम्बोधित भी करती थी।

बहरहाल, इन्दौर नगर में भारतीय समाचार पत्रों को उनके भाषगत नीति को केन्द्र में रखकर उसके प्रतिरोध में होली जलाने वाली कार्यवाही को लेकर इतना आहत और क्रोधित नहीं होना चाहिए कि उनके द्वारा अकारण किये जा रहे क्रिओलीकरण के खिलाफ शुद्ध गांधीवादी प्रतिकार की खबर को वे अपने पृष्ठों पर तिल भर भी जगह न दें। यह काम निश्चय ही सम्पादक का नहीं हो सकता। तो क्या हमारे समाचार-पत्रों में एक किस्म की 'कॉरपोरेट सेंसरशिप' अघोषित रूप से आरंभ है ? जबकि, ठीक उसी दिन 'दैनिक भास्कर' ने क्रिओलीकरण के विरूद्ध लिखी गयी मेरी तीखी टिप्पणी ससम्मान और प्रमुखता से छापी और 'नईदुनिया' ने इसके दो दिन पूर्व ही 'भाषा के खिलाफ हो रही साजिश को समझो' शीर्षक से हिन्दी के 'क्रिओलीकरण' के खतरे की तरफ पाठकों नहीं, सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-भाषियों को सचेत करने वाली उस टिप्पणी को एक ऐसी सम्पादकीय टीप के साथ प्रकाशित किया, जो 'जन-आह्वान' के स्वर में थी। यह तथ्य दोनों ही अखबारों के 'खुलेपन' और 'जनतांत्रिक उदारता' के स्पष्ट प्रमाण हैं। तो अब प्रश्न यह उठता है कि क्या उनकी यह 'उदारता' इतनी ज्वलनशील है कि प्रदर्शन की आंच की खबर से भस्म हो सकती है ? हाँ, राजनीतिक सत्ताएँ 'विचार' को खतरा मानती हैं और उससे डरती भी हैं, लेकिन अखबर की ताकत तो 'विचार' ही है। 'विचार' तो उसके लगभग प्राण हैं ? फिर चाहे वे 'सहमति' के रूप में हों, या 'असहमति' के रूप में।

मैं मानता हूं कि आज हमारा समाज जितना 'सूचना-सम्पन्न' हुआ है, उसके पीछे प्रमुख रूप से 'लिखे-छपे शब्द' की बहुत बड़ी भूमिका है, 'बोले गये' शब्द वाले माध्यम की तो प्राथमिकताएँ और प्रतिबद्धताएँ केवल मनोरंजन ही है। अत: मुझे उस माध्यम से कुछ नहीं कहना। वह अभी तक परिपक्व ही नहीं हो पाया है। अधिकांश का 'समाचार-विवेक' तो साध्यकालीनों की सनसनी के समांतर ही है। वे 'सचाई' के साथ फ्लर्ट (!) करते हैं। उनका 'रिमोट' सच के किसी दूसरे 'सनसनाते संस्करण' को बदलने का उपकरण है। लेकिन सुबह के दैनिक अखबार यह मानते हैं कि वह मालिकों का कम पाठकों का ज्यादा है। इसीलिए, यदि पाठकों का एक छोटा-समूह 'संवादपरक प्रतिरोध' की संभावना के पूरी तरह निशेष हो जाने के बाद, यदि निहायत ही गांधीवादी तरीके से अपना विरोध होली जलाकर प्रकट कर रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि समाचार-पत्रों में हो रही आयी उसकी आस्था का पूर्णत: से लोप हो गया है। गांधीजी ने, जब विदेशी वस्त्रों की होली जलायी थी तो वे 'वस्त्रोत्पादन' के विरूद्ध कतई नहीं थे। ना ही वस्त्र धारण करने के काम से उनकी आस्था उठ गयी थी। वे तो प्रतीकात्मक रूप से एक अचूक सूचना दे रहे थे कि हमें 'औपनिवेशिक विचार' का विरोध करना है, जो वस्तुओं में शामिल है।

अंत में इन दिनों जिस 'शक्ति-त्रयी' की बात की जा रही है, उसमें 'सूचना' भी राज्य सत्ता के समानान्तर मानी जा रही है। 'सूचना' का निर्माण और वितरण करने वाली दुनिया की चार पांच संस्थाओं को 'सत्ता' का सर्वोपरि रूप माना जा रहा है, क्योंकि वे ही 'विश्वमत' गढ़ती या बनाती हैं। उनमें किसी भी मुल्क या उसकी सरकार को ध्वस्त करने की भी अथाह कुव्वत है, लेकिन वे अपने मुल्क के 'प्रतिरोध की आवाजों' की अनसुनी नहीं करती वर्ना, नोम चॉमस्की जैसे लोगों के विचारों की आहटें शेष संसार को सुनाई ही नहीं देती।

मुझे ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेम्बर लेन के आक्सफर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में दिये गये उनके भाषण की याद आती है। उन्होंने कहा था, 'आक्सफर्ड' ने हमें जब जब जैसा-जैसा करने को कहा हमने हमेशा ही ठीक वैसा-वैसा किया; लेकिन जब आक्सफर्ड को हमने अपने जैसा करने को कहा, उसने वैसा कभी नहीं किया और एक ब्रिटिशर की तरह मुझे इन दोनों बातों पर अपार गर्व है।

कुल मिलाकर चेम्बरलेन ने यही कहना चाहा हम ब्रिटिशर्स विचार के स्तर पर इतने उदार हैं हम अपनी प्रखरतम आलोचना का सम्मान करते हैं, लेकिन, हमें अपने मुल्क की बुद्धिजीवी बिरादरी पर भी गर्व है, जो असहमतियों को व्यक्त करने मेंे भीरू नहीं है। किसी भी देश और समाज में भीरूता का वर्चस्व बौद्धिकों में व्याप्त होने लगे, तब शायद यह मान लेना चाहिए कि वह फिर से पराधीन होने के लिए तैयार हैं।

अंत में कुल जमा मकसद यही है कि लोहिया की विचारधारा में गहन आस्था रखने वाले श्री अनिल त्रिवेदी, तपन भट्टाचार्य और जीवनसिंह ठाकुर ने भारतीय भाषाओं के आमतौर पर तथा हिन्दी के क्रिओलीकरण (हिंग्लिशीकरण) को लेकर खासतौर पर एक शांत और नितान्त निर्विघ्न प्रदर्शन किया तो वस्तुत: वे निश्चय ही इसके दूरगामी खतरों की तरफ पूरे देश और समाज को चेतस करना चाहते हैं। वे ठीक ही कह रहे हैं 'भाषा का प्रश्न' महज भाषा भर का नहीं होता, वह समूचे समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था का भी अनिवार्य अंग होता है। क्या हमें यह नहीं दिखाई दे रहा कि अमेरिका और ब्रिटेन 'ज्ञान समाज' के नाम पर, मात्र अपने सांस्कृतिक उद्योग की जड़ें गहरी करने में लगे हैं। 'कल्चरल इकोनॉमी' उनकी अर्थव्यवस्था का तीसरा घटक है, जो अंग्रेजी सीखने-सिखाने के नाम पर अरबों डॉलर की पूँजी कमाना चाहते हैं। हिन्दी, यदि संसार की दूसरी सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा की चुनौतीपूर्ण सीमा लांघने को है, तब उसे एक धीमी मौत मारने के लिए उसका क्रिओलीकरण क्यों किया जा रहा है ? अभी षड्यंत्र की यह पहली अवस्था है, 'स्मूथ डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि'। अर्थात हिन्दी के शब्दों का चुपचाप अंग्रेजी के शब्दों द्वारा विस्थापन इसे सर्वग्रासी हो जाने दिया गया तो अंत में आखिरी प्रहार की अवस्था आ जाएगी और वह होगा, देवनागरी लिपि को बदलकर उसके स्थान पर रोमनलिपि को चला देना। यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि ५ जुलाई १९२८ को 'यंग इंडिया' में जब गांधीजी ने लिखा कि अंग्रेजी साम्राज्यवादी भाषा है, इसे हम हटा कर रहेंगे, तब गोरी हुकूमत अंग्रेजी के प्रसार प्रचार पर छ: हजार पाऊण्ड खर्च करती थी (तब भी यह राशि बहुत ज्यादा थी)। गांधीजी की इस घोषणा को सुनते ही उन्होंने लगे हाथ अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार का बजट बढ़ा दिया। १९३८ में बजट की राशि थी तीन लाख छियासी हजार पाऊण्ड। यदि अखबारों की होली जलाकर प्रकट किये गये इस विरोध के बाद हिन्दी के समाचार पत्रों मे भाषा के 'क्रिओलीकरण' की गति तेज हो जाये तो यह स्पष्ट सूचना जायेगी कि भाषा संबंधी नीतियों के पीछे अंग्रेजी की 'नवसाम्राज्यवादी' शक्तियाँ दृढ़ता के साथ काम कर रही हैं।

चिकनी सतहें, फिसलते बयान

पिछले दिनों गांधी-नेहरू की ऐतिहासिक विरासत वाले राजनीतिक दल के महा-अधिवेशन में उसके एक प्रवक्ता ने स्वयं को अपनी समझ से लगभग एक अपराजेय 'तर्कऱ्योद्धा' की तरह प्रस्तुत करते हुए कहा कि 'ये अभी तक कहते आ रहे थे कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान क्यों होता है ? मगर अब आतंकवादियों में हिन्दुओं के नाम आने लगे हैं तो अब इनका क्या कहना है ?'


अखबारों में छपी अधिवेशनों की रपटों में यह भी दर्ज किया गया कि 'कथन' पर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए तालियाँ बजायीं। यानी कुल मिलाकर लगा कि वे भी इस सबसे प्रसन्न हो रही हैं कि एक 'बहु-प्रतीक्षित सुयोग' अब कहीं जाकर आया है और वे अब उन्हें इसके कारण 'मुंहतोड़' जवाब देने की स्थिति में आ गये हैं। यह स्थिति निश्चय ही उनके लिए एक राजनीतिक सुविधा है।


रपटों में आगे चल कर यह भी स्पष्ट किया गया कि अपनी राजनीतिक-विदुषी की तालियों के बाद पण्डाल के कोने-कोने से तालियाँ बज उठीं। यह तालियों का एक समवेत 'तुमुलनाद' था, जो प्रसन्नता की 'मुंहतोड़' लहर में लिपटा हुआ था। वे तालियाँ नहीं, तमाचे थे, जो 'उन' लोगों के वक्तव्य के गालों पर तड़ातड़ पड़ रहे थे।

लेकिन, यह तथ्य, यह कथन, यह दृश्य, एक भारतीय के लिए तालियाँ बजाने का नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र और समाज के लिए सिर धुनने का है, जबकि भारत के 'बहुसंख्यक समुदाय' से आतंकवादी सामने आने लगे हैं। यह एक भयानक सूचना है, जो भारतीय जनतंत्र की धर्म-निरपेक्ष देह में कंपकंपी पैदा कर रही है।

अभी तक देश के समाचार-पत्रों तथा तमाम पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों पर समाजशास्त्रियों की जमातें अपने अत्यन्त 'सूक्ष्माति-सूक्ष्म' विवेचनों और विश्लेषणों के जरिये यह बात बार-बार बताती और समझाती आ रही है कि अल्पसंख्यकों के बीच व्याप्त 'असुरक्षा-बोध' ही वह मुख्य कारण है, जो 'आतंकवाद' को जन्म दे रहा है, तो क्या अब भारत का 'बहुसंख्यक-समुदाय' भी असुरक्षित अनुभव करने की स्थिति में आ गया है, जहाँ से 'आतंकवादी' बरामद होने लगे हैं ? फिर यह भी कहा जाता रहा है कि अभी तक भारत में सरकारें हमेशा 'बहुसंख्यकों' की ही रही हैं और इसलिए 'बहुसंख्यक' की तरफ से उनकी सुरक्षा में 'राज्य' ही प्रस्तुत होता है। बहरहाल, इस स्थापना से यह तर्क सामने आता है कि क्या 'राज्य' ने अब बहुसंख्यकों के हितों की रक्षा से अपने हाथ झाड़ लिये हैं ? और अब वह बहुसंख्यकों को भुला चुका है ? कहने की जरूरत नहीं कि एक शांत और लगभग निरावेशी-सा रहा आया 'समुदाय' यदि इस दुरावस्था तक पहुंच रहा है तो निश्चय ही इसके कारण सत्ताओं की नीतियों के भीतर ही छुपे पड़े हैं और संयोग से कांग्रेस के पास ही सत्ता के संचालन का लम्बा कालखण्ड रहा है। बीच-बीच में कांग्रेस यदि सत्ता से बाहर रही तो भी वह ठीक उतनी ही देर के लिए बाहर रही, जब कक्षा में अपना 'होमवर्क' (?) पूरा न करने के लिए शिक्षक एक छात्र को बाहर खड़ा कर देता है। मतदाता ही जनतंत्र में सबसे बड़ा शिक्षक होता है और कांग्रेस हमेशा से ही उसे लुभाने में माहिर रही है।


इसके अतिरिक्त उसमें मतदान केन्द्रों और कक्षों को प्रयोगशाला बनाने की बुद्धि और चतुराई दोनों रही है। बहरहाल, अब यदि 'बहुसंख्यक समुदाय' में भी कैंसर कोशिकाओं की तरह आतंकवाद पनप रहा है, तो यह भी उस राजनीति का ही हासिल है, जो 'दल को देश' और 'देश को दल' बनाने और बदलने के असमाप्त प्रयोग में लगी रही है। देश और समाज उसकी प्राथमिकताओं के अंतिम क्रम मे आता रहा है। इसमें सभी एक-दूसरे से स्पर्द्धा में लगे रहे हैं।

यहाँ एक बात सहसा याद आ रही है कि अल्पसंख्यकों द्वारा यह भी कहा जाता है कि वे हमेशा दंगों के भय से तभी मुक्त रहते हैं, जब उनके यहाँ राज्य में गैर-कांग्रेसी सरकार रहती है। क्या यह टिप्पणी साम्प्रदायिक समस्या के हल किये जाने में नीयत की खोट की तरफ संकेत नहीं करती ? क्या यह हकीकत नहीं रही है कि कांग्रेस की राजनीतिक युक्तियाँ हमेशा से ही इतनी और ऐसी उलझी रही आयी हैं कि 'हिन्दुत्व' का राजनीतिक विरोध करते हुए वे धीरे-धीरे सम्पूर्ण 'हिन्दू विरोध' में चले जाते हैं। अलबत्ता कहें कि 'हिन्दुत्व की भर्त्सना' कांग्रेसी होने की अनिवार्य पहचान है।

दरअस्ल कांग्रेसी कान को 'हिन्दुत्व' के भीतर से सिर्फ वही आवाज ऊँचे 'सुर' में सुनाई देती है, जिसे वह 'सुनना' चाहती है। उन सुरों को तो कतई नहीं, जो 'हिन्दुत्व' के 'वाम' हो सकते हैं। ऐसे 'सुर' उसके लिए हमेशा निषिद्ध सुर रहे हैं। वे हिन्दुत्व की 'पहचान' और 'विरासत' के बारे में हर आदमी को घोर दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक सिद्ध करने लगे। एक जरूरी धैर्य के साथ कान लगा कर यदि उस क्षीण-सी आवाज को सुना जाये तो संभव है, एक 'विश्वसनीय' अवधारणा के लिए वाजिब जगह निकल सके, लेकिन कांग्रेस ने तो अपने कान उस ओर से हमेशा के लिए बंद क लिये हैं और जब कांग्रेस 'प्रवक्ता' की जबान से बोलती है, तो लगने लगता है कि क्या उसने 'विवेक' को विदाई दे दी है। वह स्कूली बच्चों की वाद-विवाद प्रतियोगता की ऐसी मिसाल प्रस्तुत करने लगती है, जो मसखरी से ऊपर नहीं जाती। पिछले ही दिनों दल के इन्हीं वाचाल प्रवक्ता ने सारे 'बहुसंख्यक-समुदाय' को यह कह कर चौंका दिया था कि मुम्बई के ताज हादसे के ठीक पहले शहीद हेमन्त किरकिरे ने उन्हें फोन पर अपना भय व्यक्त किया था कि वे हिन्दू-आतंकवादियों से खतरा अनुभव कर रहे हैं। बाद इसके अपनी 'अबौद्धिक-वाचालता' को और अतिरेकी बनाते हुए आगे यह भी कहा कि 'मुसलमानों के लिए वे भगवान हैं।' इससे यह तो साफ हो गया है कि उन्हें दोनों ही समुदायों की 'धार्मिकता की रत्ती भर समझ नहीं है। वह केवल 'मुंहतोड़' मुहावरे में 'जीभ तोड़` भाषा बोल रहे हैं ? यह विचार के अधकचरेपन की अराजकता का सर्वाधिक उपयुक्त प्रमाण है। क्योंकि इस्लामिक-दर्शन के हिसाब से किसी मनुष्य को खुदा का दर्जा नहीं दिया जा सकता। फिर एक पुलिस अधिकारी इस्लाम के अनुयायियों का खुदा कैसे हो सकता है ?

याद रखना चाहिए कि 'हिन्दुत्व' उस तरह से 'मोनोलिथिक' नहीं है, जिस तरह से इस्लाम या ईसाई धर्म 'एक ईश्वर और एक पवित्र-पुस्तक' के सहारे है। हिन्दुत्व का भी 'वाम' हो सकता है, क्योंकि पूर्व में भी उसने 'आत्म विभाजन' के लिए जगह बनायी। 'आर्य-समाज' या 'ब्रह्मो-समाज' उसकी उसी क्षमता के द्योतक रहे हैं। याद रखिए, उत्तर-भारत में वामपंथ मंे आयी पीढ़ी के लोग, आर्य-समाजी परिवारों से आये थे। भगतसिंह, यशपाल, भीष्म साहनी आदि लोगों की पारिवारिक पृष्ठभूमि यही थी।

बहरहाल, विडम्बना यही है कि पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस द्वारा परिभाषित और प्रचारित 'राजनीतिक दृष्टि' के चलते हुआ यह कि हिन्दूवादी अपने 'हिन्दुत्व' की 'संरचनागत-आंतरिकता' के आधार पर उसकी परिभाषा करने के बजाय 'इस्लाम से होड़ लेती परिभाषा' गढ़ना चाहने लगा। निश्चय ही इसने इस्लाम को चोट नहीं पहुंचायी, बल्कि 'हिन्दुत्व' के सहिष्णु और समावेशी रूप-स्वरूप को बुरी तरह से आहत किया। कांग्रेस की इसी चरित्रगत चूक ने दक्षिणपंथी दलों के लिए ऐसी 'ऊहापोह' में फंसे 'बहु-संख्यक समुदाय' के मतदाताओं को 'पोस्टडेटेड चैक' में बदल दिया। वह चुनावों के समय बेशक भुनायी जा सकने वाली अचूक हुण्डी सिद्ध हुआ। इसके लिए कांग्रेस की वह भाषा, दृष्टि और नीति ही जिम्मेदार रही है, जिसने 'धर्मान्धता' से लड़ने के बजाय 'धार्मिकता' से लड़ना शुरू कर दिया। कांग्रेस में गांधी और नेहरू के द्वारा गढ़ी गयी 'धर्मनिरपेक्षता' की अवधारणा की धज्जियाँ ऐसी ही समझ के चलते उड़ायी गयी है। निश्चय ही कांग्रेस के कुंवर की भी समझ यही है, प्रवक्ता तो सिर्फ उनके 'इको-प्वाइण्ट' हैं, हाँ ऐसी फूहड़ प्रतिध्वनियाँ गूंज-गूंज कर भारतीय बहुसंख्यक के कानों में प्रदूषण का प्रतिशत बढ़ाती रहने वाली है।

हमारे समय में भ्रष्टाचार का भाष्य


भारतीय व्यवस्था एक ऐसा महा आख्यान है, जिसमें संजय की दिव्य-दृष्टि भी है और धृतराष्ट्र का अंधापन भी। दुर्भाग्य यह है कि इस शताब्दी का संजय संघर्ष के बखान के बजाय नाच और गानों में आनंदवाद की जय-जयकार कर रहा है। व्यवस्था के कोठे पर भ्रष्टाचार का मुजरा देखता हुआ, वह मनोरंजन में डूबा हुआ है। वह प्रश्न करने के बजाय रेडीमेड उत्तरों को लेकर संतुष्ट है। क्या यह पीढ़ी नये प्रश्नों के ताज़ा उत्तर खोजने की कोशिश करेगी? प्रस्तुत है भ्रष्टाचार के चरित्र और उसकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर एक विवेचनात्मक टिप्पणी।


शताब्दियों से हमने खुद को लगातार एक त्रासद प्रश्न के उत्तर की खोज में जोते रखा- और, वह प्रश्न यह है कि मनुष्य अंतत: भ्रष्ट क्यों हो जाता है ? बहरहाल, अब जबकि भूमण्डलीकरण की इस ताज़ा हड़बोंग के साथ भारतीय समाज में, वर्चस्व का एक नया चरण आरम्भ हो चुका है; इसमें 'ज्ञान`, 'दौलत` और 'हिंसा` की एक ऐसी दुरूह त्रयी गढ़ी जा रही है, जो 'भ्रष्टाचार` और 'सत्ता` के मध्य अटूट और अंतरंग सम्बन्ध बनाती है। इसलिए, वित्तीय पूँजी के इस अस्थिर कालखण्ड में सत्ता का चरित्र उत्तरोत्तर बदलता ही चला गया है। यह नया सत्ता-विमर्श है, जो एक ज़ब़रदस्त ज़िरह की माँग करता है। महान् अर्थशास्त्री कौटिल्य ने जिस तत्व को आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व 'राज्य के विकास को अवरूद्ध करने वाले घटकों में गिना था`- वह थी, घूसखोरी। इसे उन्होंने `भ्रष्ट आचरण` की संज्ञा दी थी। उन्होंने कहा था, 'राज्य निर्धारित सार्वजनिक पद का निजी लाभ के लिए दुरूपयोग-भ्रष्टाचार है।` इसलिए ऐसे कर्म की घोर निंदा की जानी चाहिए और इसके लिए एक निश्चित दण्ड विधान भी होना चाहिए।


यहाँ प्रसंगवश हम एक चीनी यात्री के उस विस्मय को याद कर सकते हैं, जब वह चाणक्य को देखता है कि रात में उसने अपना अभी तक जल रहा 'दीया` बुझाया और दूसरा दीया जला लिया। बावज़ूद इसके कि पहले में तेल शेष था। चाणक्य का जवाब था कि अभी तक वह राज्य का कामकाज निपटा रहा था और वह जलता हुआ दीया राज्य का था- निजी कामकाज के लिए उसका उपयोग भ्रष्टाचार की श्रेणी में आयेगा और चूंकि अब मैं अपना खुद का कामकाज आरम्भ करने वाला हूं, इसलिए, मेरा निजी दीया जला रहा हूं। कहने का कुलज़मा मक़सद यह कि यह उदाहरण 'राज्य में सत्ता प्राप्त व्यक्ति के नैतिक आचरण के तत्कालीन प्रतिमान को रेखांकित करता है`, जहाँ आत्मानुशासन के लिए निर्धारित वर्जनाएँ रही आयी थीं।


दुर्भाग्यवश नई सदी में विदेशी पूँजी के देसी पैरोकारों ने भ्रष्ट आचरण का एक नितान्त नया और विचित्र संस्करण तैयार कर लिया है। भ्रष्टाचार की, नैतिकता की दृष्टि से तैयार की गई पूर्व की दीर्घकालिक परिभाषाएँ निर्ममता के साथ ध्वस्त कर दी गई हैं। बहरहाल, भ्रष्टाचार को लेकर अब बगै़र उत्तेजित हुए, एक सामाजिक स्वीकृति तैयार कर दी गई है। रिश्वत ऊपर की कमाई का गौरव बन गई है। ऊपर की और अतिरिक्त कमाई ऐसी है जैसे मुकुट में मोरपंख। विदेशी पूँजी के प्रताप के प्रपात मे नहाते हुए 'नैतिकता` से मैल की तरह मुक्ति पा ली गई है। बाजार की अधीरता के सामने हमारा सर्वस्व स्वाहा हो गया है। मसलन, अब रिश्वत की एक नई व्याख्या की जा रही है कि रूढ़-नैतिकतावादी लोग अर्थशास्त्र की गति को नहीं जानते। व्यापार पूँजी के प्रवाह के साथ चलता है। उसे हर क्षण गति चाहिए। नैतिकता एक स्पीडब्रेकर है। वह अवरोध है। इसलिए उसे अविलम्ब हटाया जाना चाहिए।


'रिश्वत` शब्द नैतिकतावादियों के द्वारा पूँजी की गति पर लगाया गया लांछन है। दरअस्ल, जिसे आप रिश्वत कहते हैं, वह तो 'स्पीड मनी` है। वह काम की इच्छित गति के लिए ल्युब्रिकेण्ट की भूमिका अदा करती है। रिश्वत कह कर उसे बदनाम न किया जाये। यह चंचला पूँजी की नैतिकी है, जिसमें रिश्वत राज्य के विकास को अवरूद्ध नहीं करती, बल्कि उसे आसान बनाती है। कहने की जरूरत नहीं कि, यह भारत के व्यापार और उद्योगों से जुड़े अभिजनों (इण्डस्ट्रियल-इलिट) के लिए कानून की जटिलता से मुक्ति का मार्ग है। दरअस्ल, मुक्त अर्थव्यवस्था के शिकंजे में वह अनिश्चतताओं से बुरी तरह घिर गया है। लेस्ली पामर ने हाँगकांग, भारत और इण्डोनेशिया के समाजों के उच्च वर्ग में व्याप्त भ्रष्टाचार का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए कहा कि यह वर्ग, एक किस्म की 'मेन्युफैक्चर्ड-अनसर्टेनिटीज़` के बीच फंस गया है। अर्थात् अप्रत्याशित अनिश्चितताओं से घिर गया है, जिसके चलते वह भविष्य की आश्वस्ति की आतुरता में, रिश्वत को कामकाज की जटिलता को कम करने का कारगर हथियार मानता है।


रिश्वत आसानियाँ पैदा करती है, जबकि विरोधाभास यह है कि समाज में भ्रष्टाचार की व्याप्ति की सबसे ज्यादा निंदा भी यही वर्ग करता है। वह उसे समाप्त करने का हल्ला भी करता है, और उसको ऑक्सीजन भी यही वर्ग देता है। अब नैतिकता को, रिश्वत न दे पाने वाले लोग, रिश्वत न ले पाने वाले लोगों का छातीकूट रूदन बताते हैं। उन्होंने मान लिया है कि नैतिकता एक अनुर्वर किस्म का उपहासात्मक उपदेश है। नैतिकता की, ऊँचे आवाज में बात करने से सत्ताएँ बनती हैं, लेकिन नैतिकताओं को अमल में लाने से सत्ताएँ ढह जाती है। अत: उससे एक निश्चत दूरी जरूरी है। नैतिकता को किफायती नैतिकता में बदलना आवश्यक है। क्योंकि इस बहुराष्ट्रीय निगमों के वर्चस्व वाले बाजार-समय में कार्पोरेटी चिन्तकों के द्वारा बार-बार कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार 'एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्था` में आवश्यक प्रतिस्पर्धा को बढ़ाता है। नजीजतन, इससे व्यवस्था की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। रिश्वत की ऊर्जा व्यवस्था को स्फूर्त बनाती है। रिश्वत पाकर काम करने वाला कर्मचारी अतिरिक्त सक्रियता दिखाने लगता है। इसलिए कुछ लोग रिश्वत की वैधता की भी वकालत करते हैं। यह वैसा ही है जैसे समलैंगिकता को आबादी रोकने में कारगर बताया जाता है। जबकि हकीकत में यह चंचला पूँजी की विकृत नैतिकी ही है।


जैसा कि, मैंने ऊपर कहा कि भारतीय अभिजन शायद इतिहास की सर्वाधिक अनिश्चितताओं के दौर से गुजर रहा है, ऐसे में असुरक्षा की जो भावना पैदा होती है, वह उसमें कानून के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा करती है। क्योंकि, उन्होंने कानून को विकास का अड़ंगा बता दिया गया है। जिस देश और समाज की व्यवस्था में, 'वर्क टू रूल`, ईमानदारी के प्रति वचनबद्धता नहीं है, बल्कि एक क़िस्म की धमकी है। वहाँ 'वर्क टू रूल` का अर्थ, व्यवस्था के इंजिन को ठप कर देने जैसा है। 'वर्क टू रूल` का अर्थ यह हुआ कि सामान्यजन के पास यह संदेश भेजना है कि काम अब कानून के मुताबिक होगा, तो काम होना ही असंभव हो जायेगा। रिश्वत कानून के अड़ंगे को फाँदने में मदद करती है। ज़ाहिरा तौर पर देखें तो शायद भारतीय समाज बाहर से सांस्कृतिक 'एकरूपता` का भ्रम पैदा करता है, लेकिन हकीकतन हमारा पूरा समाज, बदलते समय में धीरे-धीरे, दो स्पष्ट भागों में बँट चुका है।


एक वह हिस्सा जहाँ पूँजी का अपार आधिक्य है और दूसरा वह हिस्सा, जहाँ पूँजी का अपार अभाव है। यह नया बाइनरी अपोजिशन है। 'हम` और 'वे` का नया बँटवारा। और दोनों ही एक दूसरे से युद्धरत है। एक के लिए उसका 'पेट` ही उसकी नैतिकी है, जबकि दूसरे के लिए उसकी 'पूँजी` ही उसकी 'नैतिकी` है। इन्हीं के अनुसार उनके वर्ग-आचरण तय होते हैं- पेट के लिए कोई आचरण भ्रष्टता की श्रेणी में नहीं आता, ठीक उसी तरह पूँजी के लिए भी सभी आचरण भ्रष्टता की परिभाषा से बाहर है। पूँजी अपशिष्ट से मिले या अपवित्र से, कोई आपत्ति नहीं। मुझे अक्सर बचपन में पढ़ी एक कहानी की बिल्कुल पहली पंक्ति याद आती है, जो इस तरह थी 'राजू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।` प्रथम पंक्ति में ही एक वर्गद्रोही दृष्टि छुपी हुई है, जो प्रकारान्तर से यह बताती है कि गरीब तो बेईमान और भ्रष्ट होता ही है। यह तो राजू की निजी विशेषता थी कि वह गरीब होने के बावजूद ईमानदार था। बहरहाल, यही वह दृष्टि है, जो बार-बार यह बताने का अथक प्रयास करती है कि गरीबी ही भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है। इसे प्रवृत्तिमूलक बताकर मुक्ति पा ली जाती है। वे छूट जाते है, जो 'पूँजी`, 'ज्ञान` और 'हिंसा` की त्रयी के हिस्से हैं। वे प्रतिष्ठा-मूल्य बन जाते हैं।


राबर्ट लेईकेन का विश्लेषण इससे उलट है कि आधे-अधूरे सामाजिक और आर्थिक सुधार भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। जहाँ सुधार नहीं किया जा सकता, राज्य उस क्षेत्र में जनाकर्षण (पॉपुलर) वाले कार्यक्रम शुरू करता है और यहीं से भ्रष्टाचार का संस्थानीकरण शुरू हो जाता है। ऐसे में 'व्यक्ति' अकेला, और संस्था संगठित होती है। नतीजतन, व्यक्ति समर्पण करने लगता है। संघर्ष की संभावना धूमिल हो जाती है और रिश्वत उसे एकमात्र संकटमोचक अस्त्र की तरह संभावनापूर्ण दिखाई देती है। यह पॉवर स्ट्रक्चर का आन्तरिक तर्क बन जाती है। भारत में अर्थशास्त्रियों की एक नई नस्ल भ्रष्टाचार को शीतयुद्धोत्तर विश्व में एक अन्तर्राराष्ट्रीय महामारी की तरह बता रही है, जिससे बचना संभव नहीं है। उसे वे 'ग्लोबल-फिनामिना` बताते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने इसमें श्रीवृद्धि करने में मदद की है। जबकि, भ्रष्टाचार स्वदेशी हो या विदेशी, वह मूलत: राज्य के विकास को अवरूद्ध करके उसे सामाजिक परिवर्तन की व्याधिग्रस्त व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत कर देता है।


बहरहाल, इतने सारे घनमथन और विवेचन के बाद प्रश्न यहीं आकर टिकता है कि आज जितना भ्रष्टाचार सार्वजनिक क्षेत्र में बताया जाता है, क्या निजी क्षेत्र में उससे कम है ? क्या दोनों के बीच एक गहरी अन्तर निर्भरता नहीं है ? वित्तीय पूँजी के निष्करूण युग ने भ्रष्टाचार को ही एक संस्थान का रूप दे दिया है और उसके संस्थानीकरण में वेल्थ-वायलेंस और नॉलेज की त्रयी काम कर रही है। उसने राजनीति को भी पूँजी निवेश का नया और प्रतिस्पर्धी परिक्षेत्र बना दिया है। ऐसे में भ्रष्टाचार के विरूद्ध मात्र नैतिक-तर्कों के तीरों से कुछ नहीं होगा। सामाजिक विषमता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायेगी, जो वर्ग संघर्ष की भी शक्ल नहीं ले पायेगी। चूंकि बाजारवाद ने अपनी लोक-लुभावन रणनीति से जनता में विषमताओं के लेकर उठने वाली आपत्तियों को छीन लिया है। इसलिए, जनआंदोलन की भूमिका अनुर्वर हो चुकी है। मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक बाजार ने उसे अधीन कर लिया है। वह उसकी चाकरी में लगा हुआ है। इसलिये वह आंदोलनों नहीं उत्सवों को महत्व देता है। हर समय एक निरन्तर एक उत्सवीकरण जारी है और सारी समस्याएँ मूल्यों के विलोपन से जुड़ चुकी है।


सामूहिकता और समाज केन्द्रितता को विकास की अवधारणा से हटाकर उसे 'व्यक्ति केन्द्रित` बना दिया गया है। सब अकेले हैं और सबको आसमान छूना है। सामूहिकता से नहीं, अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य से। ऐसे में साधन की शुचिता का कोई मूल्य नहीं है। सिर्फ साध्य ही सामने है। व्यक्तिगत उन्नति की 'अधीरता` एक उन्माद की तरह चौतरफा फैल गयी है, वही भ्रष्टाचार के लिए सबसे अधिक उर्वर है। बस पूँजी चाहिए, फिर वह कहीं से भी हो, उसमें नैतिक अनैतिकता का प्रश्न अप्रासंगिक है। सब जल्दी में है, सबको कहीं न कहीं पहंुचना है। ऐसे में नैतिकता का स्पीडब्रेकर किसी को बर्दाश्त नहीं। आँतें खराब हो तो चेहरे मेकअप करने से काम नहीं चलता। अर्थव्यवस्था में भी कास्मेटिक सर्जरी काम नहीं करती।


आज मूल्यों की स्थिति यह है कि वे शाश्वत हैं या सापेक्ष, परम्परागत हैं या परिवर्तनशील- वे सब हमारे समय की हकीकत से युद्धरत है। वे जख्मी आंख से मनुष्य की ओर टकटकी लगाकर लगातार ताक रहे हैं कि उन्हें उम्मीद है कि उनको बचाने की बेकली में में दौड़ते हुए कुछ आगे आएँगे, लेकिन विडम्बना यह कि आने वाले उसे बचाने नहीं बल्कि उसको दफ्ऩ करने के लिए दौड़कर आ रहे है। कर्मठता संकटग्रस्त है और ईमानदारी प्रश्नांकित। मूल्यों के हनन का यह, वह सर्वग्रासी दौर है, जिसमें अभी तो एक शून्य ही बन रहा है। सत्य-असत्य के युद्ध में सत्यमेव जयते का विश्वास पिछली सदी की पीढ़ी की धरोहर थी और सबसे अधिक आश्वस्त करने वाली उक्ति थी, वह चिंदा-चिंदा हो चुकी है। क्या एक उज्ज्वल भविष्य की पताकाओं को हम ऐसे ही चिथड़ा-चिथड़ा होते देखते रहेंगे, कि ठिठक कर कुछ करेंगे भी।


विडम्बना यह है कि व्यवस्था की महागाथा में धृतराष्ट्र का अन्धापन भी होता है और संजय की दिव्यदृष्टि भी। लेकिन, २१ वीं सदी की महाभारत में संजय सिर्फ वित्तीय पूँजी का मुजरा देख रहे हैं और दिखा रहे हैं। वे तालियाँ कूट रहे हैं। मुटि्ठयाँ बांधकर संघर्ष के संकल्प को उन्होंने घाटे का सौदा समझ लिया है। और दुर्भाग्यवश नई पीढ़ी सौदागर बनने का ही स्वप्न बुन रही है। यह भूल कर कि जब भविष्य का सौदा होगा, तो उसमें हमारे 'नैतिक अतीत` की बहुत बड़ी भूमिका होगी। याद रखिये नैतिकताएँ कभी भी दफ्ऩ नहीं होती- वे कब्र से उठ खड़ी होती हैं और वे पीढ़ियों से पूछती है कि तुम भ्रष्ट क्यों हो रहे हो ? भ्रष्टाचार का तुम कौन-सा भाष्य करने जा रहे हो ?

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

एफ.एम. पर भूमंडलीकरण का भक्तिगीत

ये आठवें दशक के ‘पूर्वार्द्ध‘ के आरम्भिक वर्ष थे और श्रीमती इंदिरा गांधी गहरी ‘राजनीति-शिकस्त‘ के बाद अपनी ऐतिहासिक विजय की पताकाएँ फहराती हुईं, फिर से सत्ता में लौटीं थीं। इस बार वे शहरी मध्यम-वर्ग के ‘धोखादेह‘ चरित्र को पहचान कर, ‘ग्रामीण-भारत’ की तरफ मुँह कर के, अपने ‘राजनीतिक-भविष्य‘ का नया ‘मानचित्र‘ गढ़ना चाह रहीं थीं। इसीलिए, वे बार-बार एक जुमला बोल रहीं थीं-‘टेक्नोलॉजी इज़ टु बी ट्रांसफर्ड टू रूरल इण्डिया।’ कदाचित्, तब तकनोलॉजी को गाँवों की तरफ पहुँचाने के मंसूबे के साथ ही साथ उन्होंने ‘डिस्ट्रिक्ट ब्रॉडकास्ट‘ की बात भी करना शुरू कर दी थी, जिसका अंतिम अभिप्राय यह था कि ‘ज़िला-प्रसारण‘ की शुरूआत से, ‘ग्रामीण भारत‘ को सूचना-सम्पन्न बनाने की सक्रिय तथा पर्याप्त पहल की जा सकेगी।

कहने की जरूरत नहीं कि तब ‘प्रसारण‘ से जुड़े लोग, इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके इस ‘कथन‘ के पीछे भारत में भी एफ.एम. रेडियो के शुरूआत करने की मंशा ही है। चूंकि, तब तक अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे-छोटे देशों में, वे आ चुके थे। मुझे याद है, आकाशवाणी की कार्यशालाओं में ‘प्रशासनिक‘ क्षेत्र तथा ‘इंजीनियरिंग‘ के उच्चाधिकारी गाहे-ब-गाहे इस बात पर अफसोस प्रकट किया करते थे, कि ‘देखिए, भला अफ्रीका के नाइजीरिया जैसे तमाम अन्य पिछड़े हुए मुल्कों में एफ.एम. आ चुके हैं और एक हम हैं कि अभी भी उसी पुरानी और ‘लगभग चलन से बाहर हो चुकी‘ तकनोलॉजी से काम चला रहे हैं।’

बहरहाल, पता नहीं तब, ‘सत्ता के गलियारों’ में क्या कुछ घटा और वह योजना फाइलों के अम्बार में अचानक कहीं ‘दफ्न‘ हो गई। निश्चय ही इसकी वजह जानने की कोशिश, उस समय की ‘नीतिगत-उलझनों‘ को रौशनी में ला सकती है। क्योंकि, ‘सूचना‘ स्वयं धीरे-धीरे एक ‘सत्ता‘ बन जाती है - और वह ‘राजनीतिक‘सत्ता‘ को ही सबसे पहले आघात पहुँचाती है।

दरअस्ल, अफ्रीकी महाद्वीप में ‘सूचना‘ और ‘संचार‘ के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने वाले, ‘सूचना-सम्राटों‘ के समक्ष, यह अत्यन्त स्पष्ट था कि वहाँ की भाषाएँ, इतनी विकसित नहीं है कि पहले वहाँ के प्रिंट-मीडिया में घुस कर, उन पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश की जाये। वहाँ ‘प्रिमिटव-कल्चर‘ और ‘सोसायटी‘ के चलते ‘लिखे-छपे’ के बजाय ‘बोले जाने’ वाले माध्यमों के जरिए ही वांछित काम निपटाया जा सकता है, जो ‘नव-औपनिवेशिक‘ एजेण्डे के लिए बहुत जरूरी है। अलबत्ता, उनके लिए, अफ्रीकी महाद्वीप में स्थानीय भाषाओं का ‘कम विकसित‘ होना, सर्वाधिक सहूलियत की बात थी। चूँकि, वह (‘हाफ लिविंग एण्ड हाफ फॉरगॉटन’) अर्द्ध-जीवित और अर्द्ध-विस्मृत अवस्था में थी। नतीजतन, वे तो कहा ही करते थे, ‘दे आर बार्बेरिअन्स विथ डायलैक्ट, वी आर सिविलाइज्ड विथ लैंग्विज’। वे अपनी ‘भावी-रणनीति‘ के तहत अफ्रीकी जनता को सभ्य बनाने के लिए, उनकी भाषाओं का ‘रि-लिंग्विफिकेशन‘ पहले ही शुरू कर चुके थे। लेकिन, एफ.एम. के आगमन ने, उनके एजेण्डे को तेजी से पूरा करने में, उनके लिए एक अप्रत्याशित सफलता अर्जित कर दी। चूँकि एफ.एम. रेडियो के आते ही उन्होंने फ्रेंच द्वारा अपने प्रचार-प्रसार के लिए अपनाई गई रणनीति के तर्ज पर अघोषित रूप से लगभग ‘लैंग्विज-विलेज‘ अर्थात् ‘भाषा-ग्रामों‘ के निर्माण जैसा काम करना शुरू कर दिया।

इसके अन्तर्गत उन्होंने किया यह कि ‘प्रसारण क्षेत्र‘ में आने वाली आबादी को, ‘स्थानीय भाषा में अंग्रेजी की शब्दावली के मिश्रण से तैयार एक ऐसे भाषा रूप का दीवाना बनाना‘ कि वह ‘पूरा प्रसारण‘, उस आबादी के लिए एक ‘मेनीपुलेटेड-प्लेजर’ (छलयोजित आनंद) का पर्याय बन जाये। इसके साथ ही उसके अनवरत उपयोग से उस ’भाषा रूप’ को ’यूथ-कल्चर’ का शक्तिशाली प्रतीक बना दिया जाये। इसे ‘आनन्द के द्वारा दमन‘ की सैद्धान्तिकी कहा जाता है। वस्तुतः, इसमें लोग, अपने ’समय और समाज’ के अन्तर्विरोधों को ठीक से पहचान पाने की शक्ति ही खो देते हैं और तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ‘घटनाओं-परिघटनाओं‘ में आनंद की खोज ही उनका अंतिम अभीष्ट बन जाता है। ‘यूथ-कल्चर‘ से नाथ देने के कारण यह ‘अविवेकवाद‘ समाज के भीतर, निर्विघ्न रूप से काम करने लगता है। बौद्धिक रूप से विपन्न बना दिये जाने की यह अचूक युक्ति मानी जाती है।

बहरहाल, तब वहाँ बार-बार यह कहा जाने लगा कि सम्पूर्ण अफ्रीकी समाज में अपने ’प्रिमिटव कल्चर’ और उसके ’पिछड़ेपन’ से बाहर आने की एक ’नई-इच्छाशक्ति’ पैदा हो रही है और अपने समाज के विकास के लिए, ’दे आर वॉलेन्टॅरिली गिविंग अप देअर मदरटंग्स’ उनके भीतर लैंग्विज-शिफ्ट की स्वेच्छया ‘सामाजिक-आकुलता‘ उठ चुकी है। यानी वे स्वेच्छा से अपनी भाषा छोड़ देना चाहते हैं।

बहुत साफ था कि ये औपनिवेशक ताकतों की तमाम ‘धूर्त-व्याख्याएँ‘ थीं, जो उनके भाषागत षड्यंत्र को बहुत कौशल के साथ छुपा ले जाती थीं। इन एफ.एम. के कार्यक्रम संचालकों से कहा जाता था कि इसे भूल जाइये कि ‘जनता माध्यम के साथ‘ क्या करती है’, बस यह याद रखिए कि ‘माध्यम के जरिये आप जनता के साथ’ क्या कर सकते हैं।‘ नतीजतन, उन्होंने रेडियो के प्रसारण के जरिए, ‘अर्थवान-प्रसारण’ देने के बजाय ‘अर्थहीन-प्रसन्नता‘ बाँटने का अंधाधुंध काम, बड़े पैमाने पर किया और यह सब उसी समाज के ‘टोटम्स’ का इस्तेमाल करते हुए कुछ ऐसी चतुराई के साथ किया कि एक बार तो उन्हें लगा, उनकी संस्कृति और भाषाओं के आगे अंग्रेज और अंग्रेजी झुक गयी है। उसे उन्होंने अपनी विजय माना।

निश्चय ही इसका अभिप्राय ये कि वे एक विराट ‘भ्रम‘ तैयार करने में सफल हो रहे थे। बाद में प्रसारण से वह ‘भाषा रूप’ जिसे लिंग्विस्टिक-सिन्थेसिस’ के जरिए तैयार किया गया था और उसे ’बोलचाल का नैसर्गिक रूप’ कहा गया था, धीरे-धीरे अंग्रेजी के द्वारा विस्थापित कर दिया गया। इसे बाद में स्वाहिली और जूलू के लेखकों ने ‘मास-डिसेप्शन’ कहा। क्योंकि, अब अफ्रीकी महाद्वीप के देशों में, समाज की ‘प्रथम भाषा’ अंग्रेजी ही बना दी गयी। उन्होंने कहा कि ‘अश्वेतों ने भाषा नहीं, अपना भाग्यलेख बदल लिया है।’

भूमंडलीकरण के पदार्पण के साथ बर्कली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर गेल ओमवेत जो भारत आती-जाती रहती हैं, और गुरूचरणदास जैसे लोग, यहाँ भारत के लोगों को इसी तरह अपना ‘भाग्य-लेख‘ बदलने के लिए, भारतीय भाषाएँ छोड़ कर अंग्रेजी को अपनाने की राय बड़े जोर-शोर से देते चले आ रहे हैं।

बहरहाल, अब अफ्रीका में अफ्रीकी भाषाएँ रोज़मर्रा का पारस्परिक कामकाज निबटाने की ऐसी भाषाएँ भर रह गयी हैं, जिनका काम चिंतन के क्षेत्र से हट कर, केवल ‘मनोरंजन‘ और ‘कामकाजी-सम्पर्क‘ भर का है। कहने की जरूरत नहीं कि हमारे यहाँ भी कुकुरमुत्तों की तरह दिन-ब-दिन हर छोटे-बड़े महानगर में, आवारा-पूंजी के सहारे खुलते जा रहे, इन एफ.एम. से एक ऐसी ‘प्रसारण-संस्कृति’ को जन्म दिया जा रहा है, जो ‘यूरो-अमेरिकी एजेण्डों‘ को उसकी पूर्णता तक पहुंचाने के काम को निबटाने में लगी हुई है। इसी के चलते देश का सबसे पहला निजी एफ.एम. प्रसारण मुम्बई में ‘हिग्लिश‘ में शुरू होता है और बाद में जितने भी एफ.एम. आये हैं - यही उनकी भाषा नीति हो गई। वहाँ अच्छी हिन्दी बोलना अयोग्यता की निशानी है।

अब यह बहुत साफ हो चुका है कि इनका श्रीमती गांधी की उस ‘डिस्ट्रिक्ट-ब्राडकास्ट’ की अवधारणा से कोई लेना-देना नहीं है, जो मूलतः ‘ग्रामीण-भारत’ के लिए थी और जिसकी प्रतिबद्धता ‘विल्बर श्राम’ के ‘विकासमूलक-प्रसारण‘ की थी। यह सिर्फ ‘महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन‘ की ‘जीवन शैली‘, ‘रहन-सहन‘, ‘बोलचाल‘ को ‘समग्र’ समाज के लिए ‘मानकीकरण’ करने का काम कर रहे हैं, जिसने यह स्वीकार लिया है कि जल्दी से जल्दी, बस एक ही पीढ़ी के ‘कालखण्ड‘ में, इस देश से तमाम स्थानीय भाषाओं की विदाई हो। यही वजह है कि ‘अंग्रेजी लाओ देश बचाओ’ का ‘हल्लाबोल‘ इस दोगले मीडिया ने शुरू कर दिया है।

आप हम साफ-साफ देख सुन रहे हैं कि जिस तेजी से ‘आर्थिक‘ क्षेत्र में भूमंडलीकरण की शुरूआत की गयी, ठीक उसी और उतनी ही तेजी से, ‘सामाजिक क्षेत्रों‘ में, ‘स्थानीयता’ और ‘क्षेत्रीयताओं के प्रश्न, ‘अस्मिता की रक्षा के प्रश्न‘ बना दिये गये। मराठी या कन्नड़ में उठे विवादों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। वे परस्पर नये वैमनस्य में जुत चुकी है। हिन्दी को एक ‘साम्प्रदायिक‘ भाषा करार दिया जा रहा है।

अलबत्ता, उसे नये ढंग से ‘विखण्डित‘ किया जा रहा है। बोलियों को हिन्दी से ‘स्वायत्त‘ करने का अभियान आरंभ है, जिसमें बहुत संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ छुपे हैं। जल्द ही आठ हिन्दीभाषी प्रान्तों में जन्मे लोगों से कहा जायेगा कि वे अपनी ‘मातृभाषा‘, ‘मालवी‘, ‘निमाड़ी‘, ‘छत्तीसगढ़ी‘, ‘हरियाणवी‘, ‘भोजपुरी’ आदि-आदि लिखवायें। संख्या के आधार पर डराने वाले आंकड़ों वाली हिन्दी, किसी की भी मातृभाषा नहीं रह जायेगी। यह नया और निस्संदेह एक अन्तर्घाती ‘देसीवाद’ है, जो अंदरूनी स्तर पर अंग्रेजी के लिए एक नितान्त निरापद राजमार्ग बनाने का काम करने वाला है।

इस सारे तह-ओ-बाल के बीच, अंत में देश के महानगरों में ‘उधार की चंचला लक्ष्मी‘ से खुल रहे, इन तमाम निजी एफ.एमों की ‘प्रसारण-सामग्री‘ का आकलन किया जाये तो पायेंगे कि ये केवल मनोरंजन के आधार को मजबूत करती हुई, ‘मसखरी के कारोबार‘ में जुटी टुकड़ियां हैं, जिनका मकसद उस ‘पापुलर-कल्चर‘ के लिए जगह बनाना है, जो पश्चिम के सांस्कृतिक-उद्योग के फूहड़ अनुकरण से हमारे यहाँ जन्म ले रहा है। इनका ‘विचार‘ नहीं, ‘वाचालता’ आधार है। उन्हें ‘बोलना‘ और ‘बिना रूके बोलते रहना‘, बनाम बक-बक चाहिए। इनके लिए ‘विचार‘ एक गरिष्ठ और अपाच्य शब्द है। वहाँ वे ‘फण्डे‘ चाहते हैं। रोट्टी कमाने के। पोट्टी पटाने के। यानी डेटिंग के। बॉस को खुश रखने के। सक्सेस के। जी हाँ, ‘सफलता‘, ‘समाज‘ या ‘समूह‘ की नहीं, केवल ‘व्यक्तिगत-सफलता‘ को हासिल करने के लिए मेन्युप्लेशन सीखिये।

इनके लिए स्थानीय संस्कृति और संस्कार से दूरी पैदा करना इनका नया ‘मूल्य’। इनका वर्गीय समझ क्या है? इन्हें कैसी और कौनसी पीढ़ी गढ़ना है? इनकी ‘प्रसारण-संस्कृति‘ क्या है ? इनकी ‘वैचारिकी‘ क्या है? ये किसके प्रति ‘जवाबदेह‘ हैं? इन सारे प्रश्नों के उत्तर खोजे जायें तो, ‘ये उसी खतरनाक ‘रेडियो कल्चर’ के भारतीय उदाहरण है‘, जिन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विपन्न बनाने में बहुत कारगर भूमिका निभाई थी। इनकी कारगुजारियों का बहुत वस्तुगत विवेचन ई-काट्ज तथा जी-बेबेल की पुस्तक ‘ब्रॉडकास्टिंग इन थर्डवर्ल्ड में बहुत सूक्ष्मता के साथ मिलता है कि किस तरह से जन-संचार में ‘सूचना-साम्राज्यवादियों‘ ने घुस कर उनकी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता से कैसे तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों की ‘भाषा‘ और ‘संस्कृति‘ को तहस-नहस किया।

इनकी बदअखलाक वर्ग-दृष्टि और भाषाई चतुराई का देश के सामने एक शर्मनाक उदाहरण तब सामने आया, जब एक एफ.एम. रेडियो के प्रतिभाशाली आर.जे. ने ‘इण्डियन आइडियल‘ बने, प्रशान्त तमांग के बारे में टिप्पणी की थी, जिसका कुलजमा अर्थ यह था कि ‘चैकीदारी से गायकी तक गया, गोरखा। यह पूरे गोरखा समाज पर अभद्र टिप्पणी थी। यानी गोरखा जन्म से चैकीदार ‘होने‘ और ‘बने रहने‘ के लिए होते हैं, लेकिन प्रशान्त तमांग संयोग से ऐसा ‘बिन्दास बंदा’ निकला, जिसने ‘गायकी‘ में गुल खिला दिये। यह भाषा की वही भर्त्सना योग्य ‘वर्गीय-दृष्टि‘ है, जो बताती है कि ‘रामू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।‘ अर्थात्, गरीब मूलतः बेईमान होते हैं, यह रामू संयोग से एक ऐसा निकला जो बावजूद गरीब होने के ‘ईमानदार‘ बन गया।

वास्तव में इन्हें कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता नहीं, बस ‘वाचाल कारिन्दे‘ चाहिए, जो हर चीज को ‘मस्ती‘, ‘मजा‘, या ‘फन‘ बना दे या फिर उसे कामुकता से जोड़ दे। एक कमजोर बौद्धिक आधार के बावले समाज का, ‘आनन्दवादी हथियारों द्वारा सफल दमन‘ कार्यक्रम चल रहा है। फासीवादी दौर में जर्मन समाज के पतन की पृष्ठभूमि में, तब रेडियो ने यही किया था। जो आज ये कर रहे हैं। अपने प्रसारण से ये एक ऐसा ‘सांस्कृतिक-उत्पाद‘ बनाते हैं, जो देशकाल से परे रहता हुआ, केवल ‘उपभोगोन्मुख‘ हो और उसका कोई अन्य ‘मूल्य‘ न हो। ये ‘मुक्त भारत‘ के नये शिल्पियों की दिमागी उपज है। वे ‘भारत की मुक्ति‘ के शिल्पी नहीं। क्योंकि वे तो कब्रों में दफ्न हैं और आकाशवाणियाँ, जब तीस जनवरी को रूंधे हुए गले से रामधुन गाते हुए, उनकी याद दिलाती रहती है। ठीक उस वक्त भी इनके यहाँ कोई धमाकेदार या ‘फोन इन’ प्रोग्राम चलता रहता है जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।

समाज को सूचना-सम्पन्न बनाते हुए, किसी एफ.एम. का रेडियो जॉकी अपने किसी एक कालर (!) से पूछ रहा होता है: ‘तो बताइये, आप अपने लिए गारमेण्ट्स का कौन-सा ब्रॉण्ड चुनती हैं ? (उधर से किसी ब्रॉण्ड का नाम) और हाँ, तो आप अपने अण्डर गारमेण्ट्स के लिए कौन-सा ब्राण्ड चुनती हैं ? (उधर से संकोच और शर्म को व्यक्त करते कुछ अस्पष्ट शब्द) अरेऽ रेऽऽ रेऽऽ आप तो शर्मा गयीं.... आपका नाम नेहा नहीं, लगता है ‘शर्मिला‘ है। ओह! यू आर सो शाय ? आई थिंक यू आर अ विक्टिम आफ एन ओल्ड कल्चरल फोबिया !..... वेल लेट इट बी सो..... कोई बात नहीं... कोई बात नहीं, वह आपका सीक्रेट है, वह शायद आपके फ़्रेंड को पता होगा.... शॉपिंग उन्हीं के साथ करती हैं- कौन से मॉल में ?‘

प्रसंग दूसरा....... हाय, हैलो.... आपकी आवाज से लग रहा है, यू आर बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल टू.... तो बताइये, आप लड़कों से डरती हैं या सवालों से....? दोनों से नहीं डरती.......? वेरी गुड.... यू आर ब्यूटिफुल एण्ड नॉट कावर्ड...... नाम बताइये आपके कोई खास क्लासमेट्स का....? ओ.के...... ऐनी सेक्समेट.... नॉट यट.... (उधर से फोन कट) प्रतिभाशाली आर.जे. की बकबक जारी....... चलिए आपने लाईन काट दी..... लेकिन, हम आपको, लाइन मारने वालों की तरफ से एक खास गीत पेश कर रहे हैं...... गीत शुरू.... (नहीं नहीं अभी नहीं, थोड़़ा करो इंतजार.............। )
जी हाँ, ये है इनका ‘पीपुल्स-पार्टिसिपेशन’ (!) है। ये है इनकी ‘सूचना-सम्पन्नता‘ है। रेडियो जॉकी की सबसे बड़ी योग्यता है कि वह हर बात को कितनी लम्पटई के साथ ‘कामुकता‘ (सैक्चुअल्टी) से जोड़ सकने में पारंगत है ? ये नया ‘यूथ-कल्चर‘ गढ़ा जा रहा है ? जिसमें लम्पटई को ‘ग्लैमराइज’ (!) किया जाता है। बाहर की लम्पटई, एफ.एम. प्रसारण में ‘बिन्दास है‘, ‘बैलौंस है’ और ‘बोल्ड है।‘

दरअस्ल, देखा जाये तो उसका सब कुछ ‘बोल्ड‘ नहीं, ‘सोल्ड‘ है। उसकी ‘जबान‘, उसकी ‘भाषा‘, उसका ‘समय‘, उसकी ‘वफादारी‘, यहाँ तक कि उसकी ‘आत्मा‘ भी। वह सामाजिक-सांस्कृतिक ध्वंस लिये ‘वेतन‘ नहीं ‘सुपारी‘ लिए हुए है। वह पैकेज पर है।

अंत में कहना यही है कि, जिस तरह ‘उदारवाद’ की अगुवाई के लिए ‘आनन-फानन’ में बगैर कोई आचार-संहिता के निर्धारण किये, निजी एफ.एम. के लिए, जो प्रसारण क्षेत्र में जगह बनाई गई, वह सत्ता की ‘नियमहीनता‘ का लाभ लेकर, एक किस्म की सांस्कृतिक अराजकता के खतरनाक खेल में बदल गयी है-‘क्योंकि, उसके सामने ‘प्रतिबद्धता’ या ‘जवाबदेही’ का कोई प्रश्न ही नहीं है। ये कोई लोक-प्रसारण नहीं है। ना उसे ‘लोक‘ की चिंता है, ना ‘शास्त्र‘ की। ‘लोक-नियंत्रण‘ के अभाव में, वे उदग्र और उद्दण्ड हो गये हैं। एक निजी मनमानापन ही प्रसारण का विषयवस्तु है। और अब दुर्भाग्यवश इन्हीं का विकृत अनुकरण करने में आकाशवाणी को भी ‘दरिद्र समझ‘ के नौकरशाहों द्वारा, जोत दिया गया है। सारी आचार-संहिता को ताक में रखते हुए, रेवन्यू जेनरेट करने के लिए, वे कुछ भी करने को तैयार है।

वहाँ भी तमाम कार्यक्रमों के नाम जो हिन्दी में थे, हटाकर अंग्रेजी के कर दिये गये हैं‘ - वे अब एफ.एम. की होड़ में हैं। ‘बाजार-निर्मित’ फण्डों के घोड़ों पर सवार होकर वे ‘पापुलर कल्चर’ के पीछे बगटुक भाग रहे हैं। जनतांत्रिक राजनीति के कोड़े से पिटा हुआ ‘प्रसारण-बिल‘, वापस किसी ऐसे बिल में घुस गया है, जहाँ, से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं रह गया है। वक्त के चूहे उसे कुतर-कुतर कर खत्म कर देंगे। क्योंकि, अब प्रसार-माध्यमों को कोई ‘निषेध‘ पसंद नहीं। अब इन्हें हर ‘निषेध‘, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन‘ लगता है। ‘उदारवाद‘ के (जन)तांत्रिकों ने उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया है-कि ‘राष्ट्र‘, कुछ नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ‘स्थानीयता‘ की ‘वर्चस्ववादी‘ एवम् ‘दमनकारी‘ व्यवस्था है- नेशन इज एन इमेजिण्ड कम्युनिटी।

भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि सैकड़ों राष्ट्रीयता का समुच्चय है, इसलिए, भारत की नक्शे में फैली भिन्न-भिन्न ‘राष्ट्रीयताएँ‘ जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना ही श्रेयस्कर है। राष्ट्र-राष्ट्रं सिर्फ बौड़मों की चीख है। उसकी अनसुनी अनिवार्य है। ये उसके विखण्डन के हवन में अपनी तरफ से आहुति दे रहे हैं। इस हवन में अंतिम पूर्णाहुति के लिए उन्हें सिर्फ अब एफ.एम. को केवल ‘समाचार-प्रसारण’ की अनुमति की जरूरत भर है। फिर देखिए, सैकण्ड-दर-सैकेण्ड कैसे पैसा बरसता है। उनका पल-पल होगा पैसे के पास। नोम चोमस्की ने तो ठीक ही कहा है कि ‘डेमोक्रेसी हेज गान टू द हाईएस्ट बिडर।‘ जो जितनी ऊँची बोली लगायेगा, राजनीतिक सत्ता उसकी ही जेब में होगी।

निश्चय ही बहुराष्ट्रीय निगमों की एक लम्बी कतार भारत में खड़ी हो गयी है और उनकी जेबें लम्बी हैं। उनमें सारे मीडिया की कटी हुई जबानें भरी पड़ी हैं। इसलिए, वे बोल नहीं रहे हैं, बस लगातार गुनगुना रहे हैं- ‘भूमंडलीकरण भक्तिगीत‘।

हिंदी के ‘हिंग्लिशीकरण’ बनाम ‘क्रिओलीकरण’ की होली

दुनिया भर में, ‘विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र’ की तरह ख्यात भारत ने जब एक नव-स्वतंत्र राष्ट्र की तरह विश्व-राजनीति में जन्म लिया, तब निश्चय ही न केवल ‘पराजित’ बल्कि, लगभग हकाल कर बाहर कर दी गई औपनिवेशिक-सत्ता के कर्णधारों की आंखें इसकी ‘असफलता’ को देखने के लिए बहुत आतुर थीं। चर्चिल की बौखलाहटों को व्यक्त करती हुईं, तब की कई उक्तियां इतिहास के सफों पर आज भी दर्ज हैं। अलबत्ता, उनकी ‘अपशगुनी उम्मीदों’ के बर-खिलाफ, जब-जब इस ‘महादेश’ में संसदीय चुनाव हुए, तब-तब इस बात की पुष्टि काफी दृढ़ता के साथ हुई कि बावजूद सदियों की पराधीनता के, भारतीय-जनमानस में एक अदम्य लोकतांत्रिक-आस्था है, जो केवल उसके सोच भर में स्पंदित नहीं है, बल्कि उसकी तमाम संस्थाओं में लगभग दहाड़ती हुई उपस्थित है। कहने की जरूरत नहीं कि उसके चौथे खंभे में तो नृसिंह की-सी शक्ति है, जो सत्ता के पेट को चीर सकती है।

बहरहाल, इंदौर नगर में पिछले दिनों गांधी-प्रतिमा स्थल पर कतिपय बुद्धिजीवियों ने देश भर के कोई बीस-बाइस हिंदी समाचारपत्रों की एक-एक प्रति जुटाकर, तमाम अखबारों के द्वारा अकारण ही तेजी से किए जा रहे हिंदी के हिंग्लिशीकरण बनाम ‘क्रिओलीकरण’ के खिलाफ उनकी होली जलाई। निश्चय ही प्रतिकार की इस प्रतीकात्मकता से जो लोग असहमत थे, वे इसमें शामिल नहीं हुए। उनके पास अपने तर्क और अपनी स्पष्ट मान्यताएं थीं, जबकि अखबारों की ‘होली’ जलाने वालों के पास अपनी सिद्धान्तिकी थी। दोनों के पक्ष-विपक्ष में एक गंभीर विमर्श भी बन सकता था। बहरहाल, घटना छोटी-सी और निर्विघ्न सी थी, लेकिन भारतीय पत्रकारिता के तिरेसठ साल के इतिहास में पहली बार घट रही थी। किसी हिंदी अखबार ने यह खबर प्रकाशित नहीं की।

प्रश्न उठता है कि जो समाचारपत्र वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन ‘समय और समाज’ की खाल खींच कर उसमें नैतिकता का नमक डालने पर तत्पर रहता है, क्या वह तिरेसठ वर्ष के अपने जीवनकाल में मात्र एक दिन किसी एक शहर में अपने पाठक की असहमति और उसका प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक बरदाश्त नहीं कर सकता? नेहरू के विषय में कहा जाता रहा है कि उनका अहम् काफी अदम्य था और वे अमूमन अपनी असहमति या अवमानना पर तिक्त हो जाते थे।

एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया के तब के ख्यात संपादक मुलगांवकर प्रधानमंत्री आवास पर स्वल्पाहार हेतु आमंत्रित थे और जिस सुबह वे आमंत्रित थे, ठीक उसी दिन उन्होंने नेहरू तथा नेहरू-सरकार के विरुद्ध अपने अखबार में बहुत तीखी संपादकीय टिप्पणी छाप दी। लगभग आठ बजे प्रधानमंत्री-आवास से दूरभाष पर सूचना दी गई कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से पूर्व में स्वल्पाहार के समय प्रधानमंत्री के साथ निर्धारित भेंट निरस्त की जा रही है।

यह सूचना पाते ही मुलगांवकर ने नेहरू को फोन किया कि ठीक है कि आज का संपादकीय आपके तथा आपकी सरकार के खिलाफ है, लेकिन इसका हमारे नाश्ते से क्या लेना-देना है? नेहरू ऐसे थे कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर रहते हुए भी ठिठक कर बुद्धिजीवियों द्वारा की गई अपनी आलोचना सुन सकते थे। कदाचित उनके इसी जनतांत्रिक धैर्य को ध्यान में रखकर दुनिया भर की प्रेस उन्हें ‘डेमोक्रेटिक प्रॉफेट’ के विशेषण से संबोधित भी करती थी।

बहरहाल, इस कार्यवाही को लेकर इतना आहत और क्रोधित नहीं होना चाहिए कि अखबारों द्वारा अकारण किए जा रहे क्रिओलीकरण के खिलाफ शुद्ध गांधीवादी प्रतिकार की खबर को वे अपने पृष्ठों पर तिल भर भी जगह न दें। यह काम निश्चय ही संपादक का नहीं हो सकता। तो क्या हमारे समाचारपत्रों में एक किस्म की ‘कॉरपोरेट सेंसरशिप’ अघोषित रूप से आरंभ है? जबकि, ठीक उसी दिन दैनिक भास्कर ने क्रिओलीकरण के विरुद्ध लिखी गई मेरी तीखी टिप्पणी ससम्मान और प्रमुखता से छापी। राजनीतिक सत्ताएं तो विचार को खतरा मानती हैं और उससे डरती भी हैं, लेकिन अखबार की ताकत तो विचार ही है। विचार तो उसके लगभग प्राण हैं? फिर चाहे वे सहमति के रूप में हों, या असहमति के रूप में।

आज हमारा समाज जितना सूचना-संपन्न हुआ है, उसके पीछे प्रमुख रूप से लिखे-छपे शब्द की बहुत बड़ी भूमिका है। यदि पाठकों का एक छोटा-समूह संवादपरक प्रतिरोध की संभावना के पूरी तरह निशेष हो जाने के बाद निहायत ही गांधीवादी तरीके से अपना विरोध होली जलाकर प्रकट कर रहा है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि समाचारपत्रों में हो रही आई उसकी आस्था का पूर्णत: लोप हो गया है। गांधीजी ने जब विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी, तो वे वस्त्रोत्पादन के विरुद्ध कतई नहीं थे।

मुझे ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेम्बरलेन द्वारा ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में दिए गए भाषण की याद आती है। उन्होंने कहा था, ‘ऑक्सफर्ड ने हमें जब-जब जैसा-जैसा करने को कहा, हमने हमेशा ही ठीक वैसा-वैसा किया, लेकिन जब ऑक्सफर्ड को हमने अपने जैसा करने को कहा, उसने वैसा कभी नहीं किया और एक ब्रिटिशर की तरह मुझे इन दोनों बातों पर अपार गर्व है।’

चेम्बरलेन ने यही कहना चाहा कि हम ब्रिटिशर्स विचार के स्तर पर इतने उदार हैं कि अपनी प्रखरतम आलोचना का सम्मान करते हैं, लेकिन उन्हें अपने मुल्क की बुद्धिजीवी बिरादरी पर भी गर्व है जो असहमतियों को व्यक्त करने में भीरू नहीं है। किसी भी देश और समाज में भीरुता का वर्चस्व बौद्धिकों में व्याप्त होने लगे, तब शायद यह मान लेना चाहिए कि वे फिर से पराधीन होने के लिए तैयार हैं।

‘कल्चरल इकोनॉमी’ उनकी अर्थव्यवस्था का तीसरा घटक है। क्या हमें यह नहीं दिखाई दे रहा कि अमेरिका और ब्रिटेन ‘ज्ञान समाज’ के नाम पर मात्र अपने सांस्कृतिक उद्योग की जड़ें गहरी करने में लगे हैं? हिंदी, यदि संसार की दूसरी सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा की चुनौतीपूर्ण सीमा लांघने को है, तब उसे एक धीमी मौत मारने के लिए उसका क्रिओलीकरण क्यों किया जा रहा है? अभी षडयंत्र की यह पहली अवस्था है, ‘स्मूथ डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि’।

यदि अखबारों की होली जलाकर प्रकट किए गए इस विरोध के बाद हिंदी के समाचार पत्रों मंे भाषा के ‘क्रिओलीकरण‘ की गति तेज हो जाए तो यह स्पष्ट सूचना जाएगी कि भाषा संबंधी नीतियों के पीछे अंग्रेजी की ‘नवसाम्राज्यवादी’ शक्तियां दृढ़ता के साथ काम कर रही हैं।

यदि पाठकों का एक छोटा-समूह ‘संवादपरक प्रतिरोध’ की संभावना के पूरी तरह निशेष हो जाने के बाद, निहायत ही गांधीवादी तरीके से अपना विरोध होली जलाकर प्रकट कर रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि समाचारपत्रों में हो रही आई उसकी आस्था का पूर्णत: लोप हो गया है।

इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के कुछ अख़बार

दुनिया की हर भाषा की ज़िंदगी में एक बार कोई निहायत ही निष्करुण वक्त दबे पांव आता है और 'उसको बोलने वालों' के हलक़ में हाथ डालकर उनकी ज़ुबान पर रचे-बसे शब्दों को दबोचता है और धीरे-धीरे उनके कोमल गर्भ में सांस ले रहे अर्थों का गला घोंट देता है। एक तरफ वह 'पवित्र को ध्वंस' में धकेलता है तो दूसरी तरफ वह 'अतीत में आग' लगाता हुआ, चौतरफा भय और निराशा फैला देता है। ऐसे ही वक्त के ख़िलाफ अंतत: मंगल पाण्डे की बंदूक से गोली निकलती है और 1857 का गदर मच जाता है। ........आज हम फिर 1857 के ही निकट पहुँच गये हैं। वे तब ये कहते हुए आए थे : 'हम, तुम असभ्यों को सभ्य बनाने के लिए तुम्हारे देश में घुस रहे हैं।' मगर इस बार वे कह रहे हैं : 'हम, तुम कंगलों को सम्पन्न बनाने के लिए तुम्हारे यहाँ आ रहे हैं।' .......सुनो, हम जिस 'पूंजी का प्रवाह' शुरू कर रहे हैं, वह तुम्हारे यहाँ समृध्दि लायेगी। .......लेकिन, हक़ीक़त में यह देश को समृध्द नहीं बल्कि, एक किस्म के 'सांस्कृतिक-अनाथालय' में बदलने की युक्ति है। वे धीरे-धीरे आपसे आपकी बोलियाँ और भाषा छीन रहे हैं-तिस पर विडम्बना यह है कि उनके इस काम में हमारे कुछ अख़बार भी तन-मन-धन से जुट गये हैं। बहरहाल, प्रस्तुत है इसी मुद्दे को लेकर जिरह छेड़ते कुछ ज्वलंत सवाल :


भारत इन दिनों दुनिया के ऐसे समाजों की सूची के शीर्ष पर हैं, जिस पर बहुराष्ट्रीय निगमों की आसक्त और अपलक आंख निरन्तर लगी हुई है । यह उसी का परिणाम है कि चिकने और चमकीले पन्नों के साथ लगातार मोटे होते जा रहे हिन्दी के लगभग सभी दैनिक समाचार पत्रों के पृष्ठों पर, एकाएक भविष्यवादी चिन्तकों की एक नई नस्ल अंग्रेजी की मांद से निकलकर, बिला नागा, अपने साप्ताहिक स्तम्भों में आशावादी मुस्कान से भरे अपने छायाचित्रों के साथ आती है - और हिन्दी के मूढ़ पाठकों को गरेबान पकड़कर समझाती है कि तुम्हारे यहाँ हिन्दी में अतीतजीवी अंधों की बूढ़ी आबादी इतनी अधिक हो चुकी है कि उनकी बौध्दिक-अंत्येष्टि कर देने में ही तुम्हारी बिरादरी का मोक्ष है । दरअस्ल कारण यह कि वह बिरादरी अपने 'आप्तवाक्यों' में हर समय 'इतिहास' का जाप करती रहती है और इसी के कारण तुम आगे नहीं बढ़ पा रहे हो। इतिहास ठिठककर तुम्हें पीछे मुड़कर देखना सिखाता है, इसलिए वह गति-अवरोधक है । जबकि भविष्यातुर रहनेवाले लोगों के लिए गरदन मोड़कर पीछे देखना तक वर्ज्य है । एकदम निषिध्द है। ऐसे में बार-बार इतिहास के पन्नों में रामशलाका की तरह आज के प्रश्नों के भविष्यवादी उत्तर बरामद कर सकना असम्भव है । हमारी सुनो, और जान लो कि इतिहास एक रतौंध है, तुमको उससे बचना है । हिस्ट्री इज बंक । वह बकवास है । उसे भूल जाओ ।
बहरहाल-- 'अगर मगर मत कर । इधर उधर मत तक । बस सरपट चल।' भविष्यवाद का यह नया सार्थक और अग्रगामी पाठ है।

जबकि इस वक्त की हकीकत यह है कि हमारे भविष्य में हमारा इतिहास एक घुसपैठिये की तरह हरदम मौजूद रहता है । उससे विलग, असंपृक्त और मुक्त होकर रहा ही नहीं जा सकता । इतिहास से मुक्त होने का अर्थ स्मृति-विहीन हो जाना है-- सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अनाथ हो जाना है ।

लेकिन वे हैं कि बार-बार बताये चले जा रहे हैं कि तुम्हारे पास तुम्हारा इतिहास-बोध तो कभी रहा ही नहीं है । और जो है, वह तो इतिहास का बोझ है । तुम लदे हुए हो। तुम अतीत के कुली हो और फटे-पुराने कपड़ों में लिपटे हुए अपना पेट भर पालने की जद्दोजहद में हो, जबकि ग्लोबलाइजेशन की फ्यूचर एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर खड़ी है और सीटी बजा चुकी है । इसलिए तुम इतिहास के बोझ को अविलम्ब फेंको और इस ट्रेन पर लगे हाथ चढ़ जाओ ।

जी हाँ, अधीरता पैदा करने वाली नव उपनिवेशवाद की यही वह मोहक और मारक ललकार है, जो कहती है कि अब 'आगे' और 'पीछे' सोचने का समय नहीं है । अलबत्ता, हम तो कहते हैं कि अब तो 'सोचने' का काम तुम्हारा है ही नहीं। वह तो हमारा है । हम ही सोचेंगे तुम्हारे बारे में । अब हमें ही तो सब कुछ तय करना है तुम्हारे बारे में। याद रखो हमारे पास वह छैनी है, जिस के सामने पत्थर को भी तय करना पड़ता कि वह क्या होना चाहता है -- घोड़ा या कि सांड । उस छैनी से यदि हम तुम्हें घोड़ा बनायेंगे तो निश्चय ही रेस का घोड़ा बनायेंगे । यदि हमें सांड बनाना होगा तो तुम्हें वो सांड बनायेंगे जो अर्थव्यवस्था को सींग पर उछालता हुआ सेंसेक्स के ग्राफ में सबसे ऊपर डुंकारता हुआ दिखाई पड़ेगा ।

इन्हीं चिन्तकों की इसी नई नस्ल ने हिन्दी के तमाम दैनिक अख़बारों के पन्नों पर रोज़-रोज़ लिख लिखकर सारे देश की आंख उस तरफ लगा दी है, जहाँ विकास दर का ग्राफ बना हुआ है और उसमें दर-दर की ठोंकरे खाता आम आदमी देख रहा है कि येल्लो, उसने छ:, सात, आठ और अब तो नौ के अंक को छू लिया है । इसी दर के लिए ही तमाम दरों-दीवारों को तोड़कर महाद्वार बनाया जा रहा है । इसे ही ओपन-डोअर-पॉलिसी कहते हैं । और, कहने की ज़रूरत नहीं कि चिन्तकों की ये फौज, इसी ओपन-डोअर से दाखिल हुई है । यही उसकी द्वारपाल है, जो घोषणा कर रही है कि तुम्हारे यहाँ मही (पृथ्वी) पाल आ रहे हैं । तुम्हारे यहाँ विश्वेश्वर आ रहे हैं। दौड़ो और उनका स्वागत करो। तुमने तो आपातकाल का भी स्वागत किया था, तो इसका 'स्वागत' करने में क्या हर्ज है ? मज़ेदार बात यह कि इसके स्वागत में, इसकी अगवानी में, सबसे पहले शामिल है, हिन्दी के अख़बार । वे बाजा फूंक रहे हैं और फूंकते-फूंकते बाजारवाद का बाजा बन गये हैं । ये अख़बार पहले विचार देते थे। विचार की पूंजी देते थे, लेकिन अब पूंजी का विचार देने में जुट गये हैं । एक अल्प उपभोगवादी भारतीय प्रवृत्ति को पूरी तरह उपभोक्तावादी बनाने की व्यग्रता से भरने में जी-जान से जुट गये हैं, ताकि भूमण्डलीकरण के कर्णधारों तथा अर्थव्यवस्था के महाबलीश्वरों के आगमन में आने वाली अड़चनें ही खत्म हो जाये और इन अड़चनों की फेहरिस्त में वे तमाम चीजें आती है, जिनसे राष्ट्रीयता की गंध आती हो ।

कहना न होगा कि इसमें इतिहास, संस्कृति और सभी भारतीय भाषाएँ शीर्ष पर हैं। फिर हिन्दी से तो 'राष्ट्रीयता' की सबसे तीखी गंध आती है । नतीजतन भूमण्डलीकरण की विश्व-विजय में सबसे पहले निशाने पर हिन्दी ही है । इसका एक कारण तो यह भी है कि यह हिन्दुस्तान में संवाद, संचार और व्यापार की सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है। दूसरे इसको राजभाषा या राष्ट्रभाषा का पर्याय बना डालने की संवैधानिक भूल गांधी की उस पीढ़ी ने कर दी, जो यह सोचती थी कि कोई भी मुल्क अपनी राष्ट्रभाषा के अभाव में स्वाधीन बना नहीं रह सकता । चूंकि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं, बल्कि चिन्तन प्रक्रिया एवं ज्ञान के विकास और विस्तार का भी हिस्सा होती है । उसके नष्ट होने का अर्थ एक समाज, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का नष्ट हो जाना है । वह प्रकारान्तर से राष्ट्रीय एवं जातीय-अस्मिता का प्रतिरूप भी है । इस अर्थ में, भाषा उस देश और समाज की एक विराट ऐतिहासिक धरोहर भी है । अत: उसका संवर्ध्दन और संरक्षण एक अनिवार्य दायित्व है ।
जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अख़बार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अख़बार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिये और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरूआत की तो मैं अपने पर लगने वाले सम्भव अरोप मसलन प्रतिगामी, अतीतजीवी अंधे, राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा । जिसमें मैंने हिन्दी को हिंग्लिश बना कर दैनिक अखबार में छापे जाने से खड़े होने वाले भावी खतरों की तरफ इशारा करते हुए लिखा -- 'प्रिय भाई, हमने अपनी नई पीढ़ी को बार-बार बताया और पूरी तरह उसके गले भी उतारा कि अंग्रजों की साम्राज्यवादी नीति ने ही हमें ढाई सौ साल तक गुलाम बनाये रक्खा । दरअसल ऐसा कहकर हमने एक धूर्त - चतुराई के साथ अपनी कौम के दोगलेपन को इस झूठ के पीछे छुपा लिया । जबकि, इतिहास की सचाई तो यही है कि गुलामी के विरूध्द आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले नायकों को, अंग्रेजों ने नहीं, बल्कि हमीं ने मारा था । आज़ादी के लिए 'आग्रह' या 'सत्याग्रह' करने वाले भारतीयों पर कू्ररता के साथ लाठियाँ बरसाने वाले बर्बर हाथ, अंग्रेजों के नहीं, हम हिन्दुस्तानी दारोगाओं के ही होते थे । अपने ही देश के वासियों के ललाटों को लाठियों से लहू-लुहान करते हुए हमारे हाथ ज़रा भी नहीं कांपते थे । कारण यह कि हम चाकरी बहुत वफादारी से करते हैं और यदि वह गोरी चमड़ी वालों की हुई तो फिर कहने ही क्या ?

पूछा जा सकता है कि इतने निर्मम और निष्करूण साहस की वजह क्या थी ? तो कहना न होगा कि दुनिया भर के मुल्कों के दरमियान 'सारे जहाँ से अच्छा' ये हमारा ही वो मुल्क है, जिसके वाशिन्दों को बहुत आसानी से और सस्ते में खरीदा जा सकता है । देश में जगह-जगह घटती आतंकवादी गतिविधियों की घटनाएँ, हमारे ऐसे चरित्र का असंदिग्ध प्रमाणीकरण करती हैं । दूसरे शब्दों में हम आत्म स्वीकृति कर लें कि 'भारतीय', सबसे पहले 'बिकने' और 'बेचने' के लिए तैयार हो जाता है और, यदि वह संयोग से व्यवसायी और व्यापारी हुआ तो सबसे पहले जिस चीज़ का सौदा वह करता है, वह होता है उसका ज़मीर । बाद इस सौदे के, उसमें किसी भी किस्म की नैतिक-दुविधा शेष नहीं रह जाती है और 'भाषा, संस्कृति और अस्मिता' आदि चीजों को तो वह खरीददार को यों ही मुफ्त में बतौर भेंट के दे देता है । ऐसे में यदि कोई हिंसा के लिए भी सौदा करे तो उसे कोई अड़चन अनुभव नहीं होती है । फिर वह हिंसा अपने ही 'शहर', 'समाज', या 'राष्ट्र' के खिलाफ ही क्यों न होने जा रही हो ।

बहरहाल, मेरे प्यारे भाई अब ऐसी हिंसा सुनियोजित और तेजगति के साथ हिन्दी के खिलाफ शुरू हो चुकी है । इस हिंसा के जरिए भाषा की हत्या की सुपारी आपके अखबार ने ले ली है । वह भाषा के खामोश हत्यारे की भूमिका में बिना किसी तरह का नैतिक-संकोच अनुभव किए खासी अच्छी उतावली के साथ उतर चुका हैं । उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि एक भाषा अपने को विकसित करने में कितने युग लेती है । (डेविड क्रिस्टल तो एक शब्द की मृत्यु को एक व्यक्ति की मृत्यु के समान मानते हैं । अंग्रेज़ी कवि ऑडेन तो बोली के शब्दों को इरादतन अपनी कविता में शामिल करते थे कि कहीं वे शब्द मर न जायें- और महाकवि टी.एस. एलियट प्राचीन शब्द, जो शब्दकोष में निश्चेष्ट पड़े रहते थे, को उठाकर समकालीन बनाते थे कि वे फिर से सांस लेकर हमारे साथ जीने लगे।) आपको शब्द की तो छोड़िये, भाषा तक की परवाह नहीं है, लगता है आप हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार नहीं चला रहे हैं, बल्कि अंगेजी के पाठकों की नर्सरी का काम कर रहे हैं । आप हिन्दी के डेढ़ करोड़ पाठकों का समुदाय बनाने का नहीं, बल्कि हिन्दी के होकर हिन्दी को खत्म करने का इतिहास रचने जा रहे हैं । आप 'धन्धे में धुत्त' होकर जो करने जा रहे हैं, उसके लिए आपको आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी । आपका अखबार उस सर्प की तरह है, जो बड़ा होकर अपनी ही पूंछ अपने मुंह में ले लेता है और खुद को ही निगलने लगता है । आपका अखबार हिन्दी का अखबार होकर हिन्दी को निगलने का काम करने जा रहा है, जो कारण जिलाने के थे वे ही कारण मारने के बन जाएँ इससे बड़ी विडम्बना भला क्या हो सकती है । यह आशीर्वाद देने वाले हाथों द्वारा बढ़कर गरदन दबा दिये जाने वाली जैसी कार्यवाही है । कारण कि हिन्दी के पालने-पोसने और या कहें कि उसकी पूरी परवरिश करने में हिन्दी पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही आई है ।

जबकि, आपको याद होना चाहिए कि सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से उपजी 'भाषा-चेतना' ने इतिहास में कई-कई लम्बी लड़ाइयाँ लड़ी हैं । इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो आप पायेंगे कि आयरिश लोगों ने अंग्रेजी के खिलाफ बाकायदा एक निर्णायक लड़ाई लड़ी, जबकि उनकी तो लिपि में भी भिन्नता नहीं थी । फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाएँ अंग्रेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के विरूध्द न केवल इतिहास में अपितु इस 'इंटरनेट युग' में भी फिर नए सिरे से लड़ना शुरू कर चुकी हैं । इन्होंने कभी अंग्रेजी के सामने समर्पण नहीं किया ।

बहरहाल मेरे इस पत्र का उत्तर अखबार मालिक ने तो नहीं ही दिया, और वे भला देते क्या ? और देते भी क्यों ? सिर्फ उनके सम्पादक और मेरे अग्रज ने कहा कि हिन्दी में कुछ जनेऊधारी तालिबान पैदा हो गये हैं, जिससे हिन्दी के विकास को बहुत बड़ा खतरा हो गया है । यह सम्पादकीय चिंतन नहीं अखबार के कर्मचारी की विवश टिप्पणी थी । क्योंकि उनसे तुरंत कहा जायेगा कि श्रीमान् आप अपने हिंदी प्रेम और नौकरी में से कोई एक को चुन लीजिए।

बहरहाल, अखबार ने इस अभियान को एक निर्लज्ज अनसुनी के साथ जारी रखा और पिछले सालों से वे निरंतर अपने संकल्प में जुटे हुए हैं । और अब तो हिन्दी में अंग्रेजी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलालों ने, विदेशी पूंजी को पचा कर मोटे होते जा रहे हिन्दी के लगभग सभी अखबारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि इसकी नागरी-लिपि को बदल कर, रोमन करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब इस तरफ कूच कर रहे हैं । उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेण्डा बना लिया है । क्योंकि बहुराष्ट्रीय निगमों की महाविजय इस सायबर युग में रोमन लिपि की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो सकती है । यह विजय अश्वों नहीं, चूहों की पीठ पर चढ़कर की जानी है । जी हाँ कम्प्यूटर माऊस की पीठ पर चढ़कर ।

अंग्रेजों की बौध्दिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - 'अंग्रेजों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आप स्वयं का मरना बहुत जरूरी है । और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ ढकेल देते हैं । ठीक इसी युक्ति से हिन्दी के अखबारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल के ये चिंतक यही बता रहे हैं कि हिन्दी का मरना, हिन्दुस्तान के सामाजिक-आर्थिक हित में बहुत ज़रूरी हो गया है। यह काम देश सेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वर्ना, तुम्हारा देश ऊपर उठ ही नहीं पाएगा । परिणाम स्वरूप वे हिन्दी को बिदा कर देश को ऊपर उठाने के लिए कटिबध्द हो गये हैं ।
ये हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किए 'बाआसानी संहार' किया जा सकता है ।

वे कहते हैं कि हिन्दी का हमेशा-हमेशा के लिए खात्मा करने के लिए आप अपनाइये। 'प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म' । अर्थात्, बाहर पता ही नहीं चले कि भाषा को 'सायास' बदला जा रहा है । बल्कि, 'बोलने वालों' को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और म.प्र. के कुछ अखबारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है । बहरहाल, इसका एक ही तरीका है कि अपने अखबार की भाषा में आप हिन्दी के मूल दैनंदिन शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अंग्रेजी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो बोलचाल की भाषा में शेयर्ड - वकैब्युलरी की श्रेणी में आते हैं । जैसे कि रेल, पोस्ट कार्ड, मोटर, टेलिविजन, रेडियो, आदि-आदि ।

इसके पश्चात धीरे-धीरे इस शेयर्ड वकैब्युलरि में रोज-रोज अंग्रेजी के नये शब्दों को शामिल करते जाइये । जैसे माता-पिता की जगह छापिये पेरेंट्स/छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेंट्स/विश्वविद्यालय की जगह युनिवर्सिटी/रविवार की जगह संडे/यातायात की जगह ट्रेफिक आदि-आदि । अंतत: उनकी तादाद इतनी बढ़ा दीजिए कि मूल भाषा के केवल कारक भर रह जायें ।
यह चरण, 'प्रोसेस ऑव डिसलोकेशन' कहा जाता है । यानी की हिन्दी के शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम ।

ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे-धीरे 'स्नोबॉल थियरी' काम करना शुरू कर देगी - अर्थात्् बर्फ के दो गोलों को एक दूसरे के निकट रख दीजिए, कुछ देर बाद वे घुलमिलकर इतने जुड़ जाएंगे कि उनको एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं हो सकेगा । यह थियरी (रणनीति) भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अंग्रेजी के शब्द हिन्दी से ऐसे जुड़ जायेंगे कि उनको अलग करना मुश्किल होगा ।

इसके पश्चात शब्दों के बजाय पूरे के पूरे अंग्रेजी के वाक्यांश छापना शुरू कर दीजिए। अर्थात्् इनक्रीज द चंक ऑफ इंग्लिश फ्रेज़ेज़ । मसलन 'आऊट ऑफ रीच/बियाण्ड डाउट/नन अदर देन/ आदि आदि । कुछ समय के बाद लोग हिन्दी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जायेंगे । उदाहरण के लिए हिन्दी में गिनती स्कूल में बंद किये जाने से हुआ यह है कि यदि आप बच्चे को कहें कि अड़सठ रूपये दे दो, तो वह अड़सठ का अर्थ ही नहीं समझ पायेगा, जब तक कि उसे अंग्रेजी में सिक्सटी एट नहीं कहा जायेगा । इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अखबार से उठाकर दे रहा हूं ।

'मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्ट्स किये हैं, वो रोड को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे हैं । क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं । इन प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है ।'

इस तरह की भाषा को लगातार पाँच-दस वर्ष तक प्रिंट माध्यम से पढ़ते रहने के बाद अखबार के ख़ासकर युवा पाठक की यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिन्दी में बोले तो वह गूंगा हो जायेगा । उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'इल्यूज़न ऑफ स्मूथ ट्रांजिशन'। अर्थात् हिन्दी की जगह अंग्रेजी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म ।

हिन्दी को इसी तरीके से हिन्दी के अखबारों में 'हिंग्लिश' बनाया जा रहा है। समझ के अभाव में लोग इस सारे सुनियोजित एजेण्डे को भाषा के परिवर्तन की ऐतिहासिक प्रकिया ही मानने लगे हैं और हिन्दी में यह होने लगा है । गाहे-ब-गाहे लोग बाकायदा इस तरह इसकी व्याख्या भी करते हैं । अपनी दर्पस्फीत मुद्रा में वे बताते हैं जैसे कि वे अपनी एक गहरी सार्वभौम प्रज्ञा के सहारे ही इस सचाई को सामने रख रहे हों कि हिन्दी को हिंग्लिश बनना अनिवार्य है। उनको तो पहले से ही इसका इल्हाम हो चुका है और ये तो होना ही है । यह टेक्नोलॉजिकल-डिटरमिनिज्म की तरह बनाया और बताया जा रहा है कि इन्टरनेट के सामने तुम्हारी वही स्थिति है, जो शेर के सामने बकली की । अब साहित्य को कसाईखाना कहने और बताने के दिन लद गए । अब तो इण्टरनेटी पुत्र ही कसाईखाना है । तुम केवल हलाक होने की विधि ज़रूर चुन सकते हो । या तो 'हलाल' या फिर 'झटका' । 'झटका' विधि यही है कि पहली कक्षा से अंग्रजी शुरू कर दो ।

आप को यह याद ही होगा कि एक भली चंगी भाषा से उसके रोजमर्रा के सांस लेते शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीन कर उसे बोली में बदल दिये जाने की क्रियोल कहते हैं । अर्थात् हिन्दी का हिंग्लिश बनाना एक तरह से उसका क्रियोलीकरण करना है । और कांट्रा-ग्रेजुअलिज्म के हथकंडों से बाद में उसे डि-क्रियोल किया जायेगा । डिक्रियोल करने का अर्थ उसे पूरी तरह अंग्रेजी के द्वारा विस्थापित कर देना ।

भाषा की हत्या के एक योजनाकार ने अगले और अंतिम चरण को कहा है कि फायनल असाल्ट ऑन हिन्दी । बनाम हिन्दी को नागरी लिपि के बजाय रोमन लिपि में छापने की शुरूआत करना । अर्थात् हिन्दी पर अंतिम प्राणघातक प्रहार । बस हिन्दी की हो गई अन्त्येष्टि । चूंकि हिन्दी को रोमन में लिख पढ़कर बड़ी होने वाली पीढ़ी के लिए वह नितांत अपठनीय हो जायेगी । इसी युक्ति से गुयाना में जहाँ 43 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते थे को फ्रेंच द्वारा डि-क्रियोल कर दिया गया और अब वहाँ देवनागरी की जगह रोमन लिपि को चला दिया गया है । यही काम त्रिनिदाद में इस षडयंत्र के जरिए किया गया है । नतीजतन, वहाँ नागरी लिपि अपाठय हो जाने वाली है ।

जबकि, विडम्बना यह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के धूर्त दलालों के दिशा निर्देश में संसार की इस दूसरी बड़ी बोले जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीन कर, उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के ही सभी अखबार जुट गए हैं । वे हिन्दी का क्रियोलीकरण कर रहे हैं। उन्होंने यह स्पष्ट धारणा बना ली है कि वे अब हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार नहीं निकाल रहे हैं, बल्कि अंग्रेजी के अखबार की नर्सरी का काम कर रहे हैं । क्योंकि, देर सबेर इसी को ही तो भारत की राष्ट्रभाषा बनाना है । प्राथमिक शिक्षा के लिए विश्व बैंक द्वारा प्राप्त धन का यही तो आखरी सुफल है, क्योंकि आगे जाकर समूची आरंभिक शिक्षा के कायान्तरण के कर्मकाण्ड को पूरा किया जाना एक अघोषित शर्त है, जिसमें हिन्दी के कई अखबार मिल-जुलकर आहुतियाँ दे रहे हैं । वे स्वाहा-स्वाहा करते हुए हिन्दी की आहुति चढ़ा रहे हैं ।

वे आजादी मिलने के साथ ही गांधी-नेहरू की पीढ़ी द्वारा कर दी गयी महाभूल को वे दुरूस्त करने में लगे हैं, जिसके चलते अंधराष्ट्रवादी उन्माद में हिन्दी को राष्ट्रभाषा की जगह बिठा दिया था - जबकि, यह तो सत्ता की भाषा बनने के लायक ही नहीं थी। यह तो अपढ़ गुलामों और मातहतों और अज्ञानियों की भाषा थी और उसे वैसा ही बने रहना चाहिए । इसी किस्म की इच्छा और संकल्प की अनुगूंज गुरूचरणदास जैसे लोगों के प्रायोजित लेखों से सुनाई देती है, जो इन अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर छपते रहते हैं । वे बार-बार कहते हैं कि जल्द ही हिन्दुस्तान दुनिया की आने वाले दो सौ वर्षों के लिए 'भाषाशक्ति' बनने वाला है - जबकि वे जानते हैं कि इससे बड़ा धोखा और कोई हो ही नहीं सकता । वास्तव में वे भारत को 2000 बरस के लिए गुलाम बनाने के लिए ठेके का काम ले चुके हैं। वे उसे उस दिशा में घेरने की निविदा हाथिया चुके हैं। इस घेरने के काम में अखबार सबसे सुंदर और सुविधाजनक लाठी है।

पिछले दिनों अमेरिका में गरीब मुल्कों की आंखें खोल देने वाली एक पुस्तक छप कर आयी है, जिसे न लिखने के लिए सी.आई.ए. ने एक मिलियन डॉलर रिश्वत देने की पेश की थी - लेकिन, लेखक ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और साहस जुटा कर प्रायश्चित के रूप में लिख ही डाली यह पुस्तक : कन्फेशन ऑव एन इकोनोमिक हिटमैन' । नोम चोमस्की और डेविड सी. कोर्टन जैसे बुध्दिजीवियों ने लेखक को उत्साहित करते हुए कहा कि इसका प्रकाशन शेष संसार का तो हित करेगा ही, बल्कि, इससे अमेरिका का भी हित ही होगा । इसलिए इसका छपना जरूरी है ।

बहरहाल, पुस्तक के लेखक जॉन पार्किन्स ने उसमें विस्तार से बताया कि किस तरह बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिए अमेरिका ने तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के आर्थिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया कि नतीजतन वे सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी विपन्न हो गए । कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे ही बहुराष्ट्रीय निगमों और विश्व बैंक के पूर्व कर्मचारी हिन्दी के अखबारों के 'तथाकथित-सम्पादकीय पृष्ठों' पर कब्जा करते जा रहे हैं । वे इन दिनों हमारे हिन्दी के समाचार पत्रों द्वारा इस भूमण्डलीय युग के चिंतक और राष्ट्र निर्माता बन गये हैं। भारत में अंग्रेजी के अश्वमेध में भिड़े ये लोग अंग्रेजी की अपराजेयता का इतना बखान करते हैं कि सामान्यजन ही नहीं कई राजनेताओं और शिक्षाविदों को लगता है, जैसे आर्थिक प्रलय की घड़ी सामने है और उसमें अब केवल अंग्रेजी ही मत्स्यावतार हैं। अत: हमें लगे हाथ उसकी पीठ पर इस आर्यभूमि को चढ़ा देना चाहिए, वर्ना यह रसातल में डूब जायेगी । ये सब देश को बचाने वाले लोग हैं । वे कहते हैं एक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने तुम्हें सभ्य बनाया । अब जो आ रही हैं वे तुम्हें सम्पन्न बनायेगी। माँ तो मांगने पर ही रोटी देती है, ये तुम्हें बिना मांगे माल देंगे । तुम्हें मालामाल कर देंगी । फिर भी तुम मांगोगे मोर । इसलिए हिन्दी को छोड़ो और अंग्रेजी का दामन थामो ।

अंग्रेजी की विरुदावली गा-गाकर गला फाड़ते ये किराये के कोरस गायक, यह क्यों भूल जाते हैं कि चीनी (जिसमें ढाई हजार चिन्हनुमा अक्षर हैं)- और जापानी जैसी चित्रात्मक लिपियों वाली भाषाओं ने अंग्रेजी की वैसाखी के बगैर ही बीसवीं सदी के सारे ज्ञान-विज्ञान को अपनी उन्हीं चित्रात्मक लिपियों वाली भाषा में ही विकसित किया और आज जब संसार में व्यापार, तकनॉलाजी या आर्थिक क्षेत्रों के संदर्भ खुलते हैं तो कहा जाता है, लिंचपिन ऑव वर्ल्ड-इकोनॉमी एण्ड टेकनोलॉजी हेज शिफ्टेड फ्रॉम अमेरिका टू जापान । हालांकि कुछ लोग अब जापान के साथ चीन का भी नाम लेने लगे हैं और यह किसी से छुपा नहीं है कि अब अमेरिका चीन से भी चमकने लगा है । क्योंकि वह शीघ्र ही सूचना प्रौद्योगिकी पर कब्जा करने वाला है । क्योंकि, अमेरिका में पढ़ रहा एक चीनी छात्र, यदि वहाँ रहकर कोई कम्प्यूटर सॉफ्टवेअर विकसित करता है तो साथ ही साथ उसे वह अपनी चीनी भाषा में विकसित करता है और अपने देश में पहुँचते ही वह उसे स्थापित कर देता है । जबकि, हिन्दी की नागरी लिपि, जो संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों में श्रेष्ठ और वैज्ञानिक है, को अंग्रेजी का रास्ता साफ करने के लिए निर्दयता के साथ मारा जा रहा है । वे अपने धूर्त मुहावरे में बताते हैं कि अखबार इस तरह हिन्दी को नष्ट नहीं कर रहे हैं, बल्कि ग्लोबल बना रहे हैं । वे हिन्दी को एक फ्रेश-लिंग्विस्टिक लाइफ दे रहे हैं । हम जानना चाहते हैं कि भैया आप किसे मूर्ख बना रहे हैं - जिस हिन्दी को राष्ट्र संघ की भाषा सूची में शामिल नहीं करवा सके, उसे 'हिंग्लिश' बनाकर ग्लोबल बनायेंगे ? और हिंग्लिश बन कर, हिन्दी ग्लोबल होगी कि वह अंग्रेजी के 'महामत्स्य' के पेट में पहुँच जाएगी । यह भाषा के विकास के नाम पर खेला जाने वाला शताब्दी का सबसे बड़ा छल है।

दरअस्ल, श्रीमान जी, आप आग लगा कर उस पर आग के आगे पर्दा खींच रहे हैं और हमें समझा रहे हैं कि 'बेवकूफो ! हिन्दी सकुशल है और वह जिंदा बची रहेगी ।' अंग्रेजी की लपट में स्वाहा नहीं होगी । यदि हो भी गई तो बाद उसके वह राख के रूप में रहेगी, पर रहेगी जरूर । भाषा की भस्म को कपाल पर पोत कर तुम प्रसन्न रहना । ठीक है, हिन्दी तुम्हारी जबान पर रहे न रहे पर वह तुम्हारे ललाट पर तो रहेगी ही । पहले हिन्दी 'ललाट की बिंदी' भर थी, अब तो तुम उससे पूरा ललाट लीप लेना । फिर तुम तो आत्मावादी हो । वासांसि जीर्णानि यथा विहाय वाले हो इसलिए भलीभांति जानते हो कि आत्मा अमर होती है । हिन्दी की आत्मा अमर है और रहेगी । वो सिर्फ पुराने कपड़े बदल रही है । उसके पुराने कपड़ों की हालत नौ गज साड़ी फिर भी जांघ उघाड़ी वाली उक्ति की तरह हो चुकी थी (शब्द का बहुत बड़ा जखीरा अर्थात् मोटे-मोटे शब्दकोश, लेकिन फिर भी लफ्जों के लाले।) हिन्दुस्तान की एक बुकराई हुई एक अंग्रेजी लेखिका ने कहा -'बताइये हिन्दी के पास एटम के लिए कोई शब्द ही नहीं है फिर भला उसमें विज्ञान की शिक्षा कैसे संभव है।' बहरहाल तुम्हारी हिन्दी जींस पहन रही है । उसे स्मार्टनेस की तरफ जाना है । वह फिलहाल ग्रीन रूम में है । लध्दड़ता छोड़कर एक फ्रेश लिंग्विटक लाइफ को हासिल करने की तरफ बढ़ रही है ।

डेविड सी कार्टन ने वैश्वीकरण की हकीकत उजागर करते हुए ठीक ही कहा है कि ग्लोबलाइजेशन का अर्थ सरकारों और बहुराष्ट्रीय निगमों का पारस्परिक संबंध भर है । वह कहता है कि इसीलिए ग्लोबलाइजेशन की प्राथमिक कार्रवाई यही होती है कि जिस किसी चीज से भी 'राष्ट्रीयता' की बू आये, उसे अविलम्ब हटाइये । इस 'सैध्दान्तिकी' के मुताबिक निश्चय ही 'हिन्दी' ग्लोबलाइजेशन के पहले निशाने पर है, चूंकि इससे राष्ट्रीयता की बहुत तीखी और बरदाश्त बाहर गंध आती है । वजह यह कि हिन्दी का रिश्ता राष्ट्रभाषा के रूप में नाथ देने से यह भारत के कुछ प्रदेशों की जनता की नजर में राष्ट्रीय अस्मिता का पर्याय बन गयी है । नतीजतन इस पर चढ़े राष्ट्रीयता के इस कवच को हटाना जरूरी है, वर्ना यह मारे जाने में काफी समय लेगी । बहुत मुमकिन है कि लोग इसकी हत्या के प्रकट पैंतरों को देख कर हो-हल्ला करते हुए एकमत होने लगें । लेकिन भूमण्डलीकरण की सफलता तभी है जब लोग भाषा और भूगोल को लेकर एकमत होना छोड़ दें । राष्ट्र राज्य की बात करने वाले को लगे हाथ मूर्ख बताने के लिए अविलम्ब आगे आयें ।

इसी संभावित संकट को भांप कर दलाल लोग यह कहते फिरते हैं कि हिन्दी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा के पाखण्ड से मुक्त करके 'जनता की गाढ़ी कमाई से खींचे गए' पैसों का बहाया जाना अविलम्ब रोका जाये । क्योंकि इससे उसे अकारण ही ऑक्सीजन मिलती रहती है । जबकि उसकी ब्रेन डेथ हो चुकी है । उसमें सोचने समझने की क्षमता ही नहीं है । राजभाषा के नाम पर धन उड़ेलने से एक और समस्या पैदा हो जाती है, वह यह कि एक ओर, भाषा के जिस पुराने रूप को अखबार नष्ट करने में मेहनत करते हैं, दूसरी ओर राजभाषा के नाम पर धन उड़ेलने से, भाषा का वह पुराना रूप एक मानक के रूप में जिंदा बना रहता है ।

अंग्रेजी इस बात में तो आरंभ से सतर्क रही और उसने हिन्दी का अन्य भारतीय भाषाओं से सहोदरा संबंध बनाने ही नहीं दिया, उलटे वैमनस्य और अदम्य वैरभाव को बढ़ाये रखा- लेकिन, हिन्दी की, अपनी बोलियों से जड़ें इतनी गहरी बनी और रही आयीं कि उसको वहाँ से उखाड़ना मुश्किल रहा । बहरहाल, ये काम अब मीडिया ने अपने हाथ में ले लिया है । बोलियों का संहार करने में जो काम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर रहा है, उसे दस कदम आगे जाकर हिन्दी के अखबार कर रहे हैं । जो अखबार साढ़े तीन रूपये में बिकते हुए जानलेवा आर्थिक कठिनाई का रोना रो रहे थे, वे अब एक या डेढ़ रूपये में चौबीस पृष्ठों के साथ अपनी चिकनाई और रंगीनी बेच रहे हैं । स्पष्ट है, यह विदेशी चंचला धनलक्ष्मी है । क्या ये लोग नहीं जानते कि यह पूंजी 'अस्मिताओं' का 'विनिमय' नहीं, बल्कि अस्मिताओं का सीधा-सीधा 'अपहरण' करती हैं ।

यह अखबारों को अपनी 'हवाई सेना' बनाकर, 'विचारों का विस्फोट' करती है, और विस्फोट वाली जगह पर थल-सेना कब्जा कर लेती है । इसी के चलते अखबार 'बाजारवाद' के लिए जगह बनाने का काम कर रहे हैं । वे पहले 'विचार' परोसते थे, अब 'वस्तु' परोस रहे हैं - अलबत्ता, खुद 'वस्तु' बन गये हैं । इसी के चलते अखबारों में संपादक नहीं, ब्राण्ड मैनेजर बरामद होते हैं । अखबारों की इस नई प्रथा ने, 'मच्छरदानी' की 'सैध्दान्तिकी' का वरण कर लिया है । कहने को वह 'मच्छर-दानी' होती है परन्तु उसमें मच्छर नहीं होता । वह बाहर ही बाहर रहता है । ठीक इसी तरह अखबार में अखबारनवीस को छोड़कर सारे विभागों के भीतर सब वाजिब लोग होते हैं। बस सम्पादकीय विभाग में सम्पादक नहीं होता । इसीलिए आपस में पत्रकार बिरादरी एडिटोरियल को एडव्हरटोरियल विभाग कहती है । अब इस मार्केट ड्राइवन प्त्रकारिता में सम्पादकीय विभाग विज्ञापन विभाग का मातहत है । यहाँ तक कि प्रकाशन योग्य सामग्री भी वही तय करता है । यों भी सम्पादकीय पृष्ठ दैनिक अखबारों में अब बुध्दिजीवियों के वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए नहीं, राजनीतिक दलों के 'व्यू-पाइण्ट' (?) के लिए आरक्षित होते जा रहे हैं । वे राजनीतिक जनसंपर्क हेतु सुरक्षित पृष्ठ हैं । यह उसी पूंजी के प्रताप का प्रपात है, जो बाहर से आ रही है ।

ऐसे में निश्चय ही वे हड़का कर पूछना चाहें कि बताइए भला यह कैसे हो सकता है कि आप पूंजी तो हमारी लें और 'भाषा और संस्कृति' आप अपनी विकसित करें ? यह नहीं हो सकता । हमें अपने साम्राज्य की सहूलियत के लिए 'एकरुपता' चाहिए । सब एक-सा खायें । एक-सा पीयें । एक-सा बोलें । एक-सा लिखें-लिखायें । एक-सा सोचें। एक-सा देखें। एक-सा दिखायें । तुम अच्छी तरह से जान लो कि यही संसार के एक ध्रुवीय होने का अटल सत्य है । हमारे पास महामिक्सर है - हम सबको फेंट कर 'एकरूप' कर देंगे । बहरहाल, उन्होंने भारत के प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपना महामिक्सर बना लिया । इसलिए, अब अखबार और अखबार के बीच की पहले वाली यह स्पर्धा जो धीरे-धीरे गला काट हो रही थी अब क्षीण हो गयी है । चूंकि अब वे सब एक ही अभियान में शामिल, सहयात्री हैं । उनका अभीष्ट भी एक है और वह है, 'वैश्वीकरण' के लिए बनाये जा रहे मार्ग का प्रशस्तीकरण । सो आपस में बैर कैसा ? हम तो आपस में कमर्शियल कजिन्स हैं । आओ हम सब मिलकर मारें हिन्दी को। अब भारत की असली हिन्दी पत्रकारिता हिन्दी की ऐसी ही आरती उतार रही है ।

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि आज जिस हिन्दी को हम देख रहे हैं - उसे 'पत्रकारिता' ने ही विकसित किया था । क्योंकि, तब की उस पत्रकारिता के खून में राष्ट्र का नमक और लौहतत्व था जो बोलता था । अब तो खून में लौह तत्व की तरह एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेन्ट) बहने लगा है । अत: वही तो बोलेगा । उसी लौहतत्व की धार होगी जो हिन्दी की गर्दन उतारने के काम में आयेगी । हालांकि, अख़बार जनता में मुग़ालता पैदा करने के लिए वे कहते हैं, पूंजी उनकी जरूर है, लेकिन चिन्तन की धार हमारी है । अर्थात्् सारा लोहा उनका, हमारी होगी धार । अर्थात्् भैया हमें भी पता है कि धार को निराधार बनाने में वक्त नहीं लगेगा । तुम्हीं बताओ उन टायगर इकनॉमियों का क्या हुआ, जिनसे डरकर लोग कहने लगे थे कि पिछली सदी यूरोप या पश्चिम की रही होगी, यह सदी तो इन टायगरों की होगी, कहाँ गये वे टायगर ? उनके तो तीखे दांत और मजबूत पंजे थे । नई नस्ल के ये कार्पोरेटी चिन्तक रोज-रोज बताते हैं - हिन्दुस्तान विल बी टायगर ऑफ टुमॉरो ।
भैया ये जुमले सुनते-सुनते हमारे कान पक गये । हमें टुमॉरो का कुछ नहीं बनना, बल्कि जो कुछ बनना है आज का बनना है। हम कल के टायगर होने के बजाय आज की गाय होने और बने रहने में संतुष्ट हो लेंगे । गाय घास खायेगी तथा दूध और गोबर देगी और उससे हमारी खेतियों की सेहत ठीकठाक बनी रहेगी । हमारे किसान आत्महत्या करने से बच जाएंगे। लेकिन तुम हो कि थोड़े से चमड़े के लिए पूरी की पूरी जिंदा गाय को मार रहे हो ।

तब की पत्रिकारिता में अपने देश और समाज को गढ़ने-रचने का साहस था, संकल्प था, समझ और स्वप्न भी था (बेशक उसमें राष्ट्रीय पूंजीवाद की एक बड़ी व ऐतिहासिक भूमिका भी थी।)। वह जख्मी कलम के साथ बारूद और बंदूक की बर्बरता के खिलाफ लड़ी थी । इस कारण वह भाषा के मसले को गहरे ऐतिहासिक विवेक के साथ देख रही थी । यहाँ गांधी का प्रसंग उल्लेखनीय लगता है । वे भी पत्रकार थे । आजादी की घोषणा के बाद जब बी.बी.सी. ने उन्हें बुलाया तो उन्होंने प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा था 'संसार को कह दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती । गांधी अंग्रेजी भूल गया है।' यह एक नवस्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण के बड़े स्वप्न का उत्तर था । यह वाक्य नहीं, एक भावी महासमर के प्रारूप का खुलासा था । उन्हें यह अहसास था कि अपनी भाषा के अभाव में राष्ट्र फिर से गुलामी के नीचे चला जाएगा । उन्होंने स्वयं को वर्गच्युत करके, जिस तरह भारतीय समाज के आखिरी आदमी के बीच खुद को नाथ लिया था, उसने उन्हें इस बात के लिए और अधिक दृढ़ कर लिया था कि अंग्रेजी की औपनिवेशिक दासता से मुक्त नहीं हुए तो इतनी लम्बी लड़ाई के बाद हाँसिल की गई आजादी का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा । उन्होंने ये बात कई-कई जगह और अपनी चिट्ठियों तथा पर्चों में भी बार-बार लिखी और छापी ।
मगर आज सबसे बड़ी त्रासदी तथा विसंगति यही है कि हमारी पत्रकारिता नई तथा कभी ख़त्म न हो सकने वाली गुलामी खोलने का रास्ता सिर्फ अपनी धंधई बुध्दि की व्यावसायिक अधीरता के कारण कर रही है । इस पत्रकारिता में, अख़बार जो 'माल' की तरह उत्पादित और वितरित हो रहा है ।

कहीं कहीं तो छापकर प्रेस से सीधे गोदामों में भरा जा रहा है । क्योंकि उन्हें अब सर्कुलेशन नहीं केवल प्रिंट आर्डर को देखना है । क्योंकि वह विज्ञापनों की दर तय करता है । उसमें न तो अतीत के आकलन का गहरा विवेक रहा है - और, न ही 'भविष्य में झांक सकने वाली दृष्टि'। एक किस्म का धंधई उन्माद है, जिसे पूंजी का प्रवाह पैदा कर रहा है । इसलिए, वह केवल अपने व्यावसायिक साम्राज्य के लिए अराजक होने की हद तक, भाषा, संस्कृति और समाज को विखण्डित करने से भी संकोच नहीं कर रहे हैं । यों भी उनके लिए अब समाज को मात्र एक उपभोक्तावर्ग की तरह देखने की लत पड़ गई है । अब उनके लिए देश की जनता राष्ट्र की नागरिक नहीं बल्कि उसके प्रॉडक्ट (?) की ग्राहक है । इसके साथ विडम्बना यह भी है कि सम्पूर्ण हिन्दी भाषाभाषी समाज भी, भाषा के साथ किए जा रहे ऐसे विराट छल को पाण्डु पुत्रों की मुद्रा में गूंगा बन कर देख रहा है ।

यहाँ यह पुर्नस्मरण कराना जरूरी है कि हिन्दी का समकालीन भाषा रूप आज विकास की जिस सीढ़ी तक पहुँचा है, उसे गढ़ने और विकसित करने में नि:संदेह हमारी हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका बहुत बड़ी रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश वही पत्रकारिता जिसे भाषा अभी तक का अपना सबसे अधिक विश्वसनीय माध्यम मानते आ रही थी, आज सबसे बड़ा धोखा उसी से खा रही है । उसके लिए सर्वाधिक संदिग्ध वही बन गया है । आज दैनिक पत्रकारिता उस मादा श्वान की तरह है, जो अपने ही जन्मे को भी खा जाती है ।

अब यह भ्रम हमें दूर कर लेना चाहिए कि भाषा बोले जाने वाले लोगों की संख्या से बड़ी है। यह मूर्ख मुग़ालता है। बोला जाना 'कमचलाऊ संप्रेषण' का संवादात्मक रूप है, चिन्तनात्मक नहीं । वह हमेशा ही आज अभी ताबड़तोड़ बनाम अनियंत्रित अधीरता से भरा होता है । नतीजतन उसे इस बात की कोई जरूरत और फुरसत नहीं होती कि वह अंग्रेजी के किसी नये शब्द का पर्याय ढूंढे या उसके लिए नया शब्द गढ़े । जैसे कि पिछली पीढ़ी ने मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट के लिए पहले संसद सदस्य शब्द गढ़ा फिर अन्त में सांसद शब्द बनाया । लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अंग्रेजी को जस का तस उठाकर अपनी फौरी जरूरत पूरी कर लेता है । इसी आदत ने हिन्दी में शेयर्ड वकैब्युलरि को बढ़ाया और अखबारों ने लगे हाथ उसे एक अभियान की तरह उठा लिया । इसलिए भाषा के इस खिचड़ी रूप का जयघोष करते हुए, जो लोग भाषा की सुंदर सेहत का प्रचार कर रहे हैं, या तो वे इस खतरनाक मुहिम का बेशर्म हिस्सा हैं, या फिर उनकी समझ का कांकड़ ही छोटा है । मेरे खयाल से पहली बात ज्यादा सच्ची और सही है।

इसके साथ ही ऐसे महामूर्खों या फिर चालाकों की कमी नहीं है जो हर समय इस बात की डूंडी पीटते रहते हैं कि लो अब तो तुम्हारी हिंग्लिश ब्रिटेन में भी लोकप्रिय हो गई है । यह बात ऐसे महातथ्य की तरह प्रचारित की जा रही है जैसे हमारी हिन्दी ने अंग्रेजी की सदियों की कुलीनता की कलाई झटक कर उसे सिंहासन से उतारकर सड़क पर ला दिया है । आभिजात्य का प्रोलेतिकरण कर दिया है। रॉयल को रौंद दिया है। देखो ! गौरांग प्रभु ने कुलीनता के कवच को खदेड़कर तुम्हारी हिंग्लिश का झगला धारण कर लिया है । यह हिन्दी की उपलब्धि नहीं सिर्फ भारतीयों की गुलाम मानसिकता की सूचना है । यह दासी का क्वीन के करीब पहुँच जाने का मूर्ख और मिथ्या रोमांच है, जो हिन्दी के हिंग्लिशियाते अखबारों की प्रथम पृष्ठों की खबर बनाता है ।

पिछले ही दिनों ऐसी ही पगला डालने वाली एक खबर और रही कि हिन्दी के कुछेक शब्दों को ऑक्सफर्ड डिक्शनरी ने ले लिया । ऑक्सफर्ड डिक्शनरी हिन्दी-गर्भित हो गई है । ये वे शब्द थे, जिनके लिए अंग्रेजी में उपयुक्त या पर्याय असम्भव था क्योंकि वे अपना विकल्प खुद थे-मसल, घी, गुड़, मंत्र, सत्याग्रह, पंडित आदि-आदि । उनको अंग्रेजी में उलथाया जाता तो वे अपना अर्थ ही खो देते । बस... क्या था ? अखबार बताने लगे कि ये लो हिन्दी छाने लगी अंग्रजी पर । एक अपढ़ महान ने तो यह तक कह दिया कि आज हमने डिक्शनरी पर विजय पाई है, एक दिन ब्रिटेन पर पा लेंगे । बहरहाल यह वैसी ही विदूषकीय प्रसन्नता थी जो मालवी की एक कहावत को चरितार्थ करती है कि एक नदीदे को किसी ने दे दी कटोरी तो उसने उससे पानी पी-पीकर ही अपना पेट फोड़ लिया । जबकि यह ऑक्सफर्ड डिक्शनरी की ज्ञानात्मक उदारता नहीं बल्कि नव उपनिवेशवादी बिरादरी का पूरा सुनिश्चित अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान है, जो भारतीयों को तैयार करता है कि जब अंग्रेजी जैसी महाभाषा उदार होकर हिन्दी के शब्दों को अपना रही है तो हिन्दी को भी चाहिए कि वह अंग्रेजी के शब्दों को इसी उदारता से अपनाये । अंग्रेजी के शब्दकोष में हिन्दी के शब्दों का दाखिला बमुश्किल एक प्रतिशत होगा । अर्थात्् दाल में नमक के बराबर भी नहीं । लेकिन हमारे अखबार तो नमक में दाल मिला रहे हैं । हिन्दी की विशाल हत्या को समावेशी बनाने और बताने का कैसा उदाहरण है ।

जब भी अंग्रेजी द्वारा हिन्दी को हिंग्लिश बनाये जाने की चिंता प्रकट की जाती है, तो कुछ लोग अपनी अज्ञानता में और चंद चालाक लोग अपनी धूर्तता में एक कविताई सच के जरिए हमें समझाने के लिए आगे आ जाते हैं कि कुछ है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी । जबकि हकीकत ये है कि हमारी हस्ती कभी की पस्ती में बदल चुकी है । हमारी भाषा हमारी संस्कृति कभी के घुटने टेक चुकी है । हमारा पूरा व्यक्तित्व (परसोना) पिछले दशकों में पश्चिमी हो चुका है, जो अब अमेरिकाना होने की तरफ बढ़ रहा है । किसी ने कहा था- आज लोग अमेरिका जाकर अमेरिकाना बन रहे हैं, लेकिन शीघ्र ही वह समय आयेगा जबकि अमेरिका आपके घर में घुसकर आपको अमेरिकन बना दिया जायेगा । यह मिथ्या कथन-सी लगने वाली बात धीरे-धीरे सत्य का रूप धारण कर रही है । इसलिए अब मॉडर्निज्म एक पुराना और बासी शब्द है, जिसे छिलके की तरह उतारकर उसकी जगह नया 'अमेरिकाना' शब्द जगह ले चुका है । यहाँ तक कि विज्ञापनों में अब अमेरिकी मॉडलों का उपयोग इस तरह किया जाता है गालिबन भारतवंशियों ये तुम्हारे नये देव पुरूष हैं और तुम्हें इन्हीं के सम्मुख दण्डवत होना है । पूरा मीडिया गोरी चमड़ी, गोरी भाशा का जिस बेषर्मी से आदर्षीकरण कर रहा है, वह देखने लायक है।

दरअसल, 'अंस्मिता' की इन दिनों एक नई और माध्यम निर्मित अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए उसका प्रचार और वकालत की जा रही है । यूं भी अब वही सबको परिभाषित करता है और तमाम जीवन और समाज के तमाम मूल्यों का प्रतिमानीकरण करने का औजार बन चुका है । दूसरी तरफ हम अपनी सनातन रूढ़ सांस्कृतिक आत्मछवि से इतने मोहासक्त हैं कि प्रत्यक्ष और प्रकट पराजय को स्वीकारना नहीं चाहते हैं । बर्बर उपनिवेश के विरूध्द लड़ने की निरन्तरता को जीवित बनाये रखने के लिए ऐसी अपराजय का अस्वीकार पराधीनता के दौर में राष्ट्रवाद की नब्जों में प्राण फूंकने के काम आता था । कुछ है कि हस्ती मिटती ही नहीं - तब यह दम्भोक्ति अचूक और अमोघ बनकर काम करती थी । जन-जन को जोड़ने और जगाने का जुमला था ये कि लगे रहो भैया । निश्चय ही उस दम्भोक्ति ने ब्रिटिश उपनिवेश के विरूध्द संघर्ष में समूचे राष्ट्र को लगाये रक्खा और हमने अंग्रेजों को हकालकर बाहर कर दिया । लेकिन वह अपने दंश का जहर खून में इस कदर शामिल कर चुका था कि हम आज हिन्दी को हिन्दी से हिंग्लिश बनाते देख रहे हैं कि कहते हैं कि कुछ नहीं होगा, वह हर हाल में बची रहेगी । हस्ती है कि मिटती नहीं कहते हुए हम यह लांछन अपने माथे पर लेने के लिए तैयार हैं कि हमने अपनी भाषा को अपने सामने दम तोड़ते हुए देखा और कुछ नहीं किया ।

कहने की जरूरत नहीं कि युध्दातुर उतावली से गुरूचरण दास जैसे लोग अपने तर्कों में बार-बार डेविड क्रिस्टल की पुस्तक लेंग्विज डेथ का हवाला इस तरह देते हैं, जैसे वह भाषा की भृगु-संहिता है, जिसमें भाषा की मृत्यु की स्पष्ट भविष्योक्ति है - अत: आप हिन्दी की मृत्यु को लेकर छाती-माथा मत कूटो । जबकि इससे ठीक उलट बुनियादी रूप से वह पुस्तक भाषाओं के धीरे-धीरे क्षयग्रस्त होने को लेकर गहरी चिंता प्रकट करती है । भाषाई उपनिवेशवाद (लिंग्विस्टिक इम्पीयरिलिज्म) के खिलाफ सारी दुनिया के भाषाशास्त्री को सचेत करती है पर हिन्दी वाले हैं कि सुन्न पड़े हैं । हिन्दी साहित्य संसार में विचरण करने वाले साहित्यकार तो तेरी कविता से मेरी कविता ज्यादा लाल में लगे हुए हैं या हिन्दी की वर्तनी को दुरूस्त कर रहे हैं । जबकि इस समय सबको मिलजुलकर इस सुनियोजित कूटनीति के खिलाफ कारगर कदम उठाने की तैयारी करनी चाहिए ।
बहरहाल, इस सारे मसले पर एक व्यापक राष्ट्रीय विमर्श की जरूरत है । हमें याद रखना चाहिए कि कई नव स्वतंत्र राष्ट्रों ने अपनी भाषा को अपनी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाया । इसलिए आज उनके पास उनका सब कुछ सुरक्षित है। हमने अपनी राजनीतिक भीरूता के चलते भाषा के मसले पर पुरूषार्थ नहीं दिखाया । इसी की वजह है कि हमसे आज का ये धोखादेह समय हमारे सर्वस्व को जिबह के लिए मांग रहा है । आज हमारी आजादी वयस्क होते ही राजनीति के ऐसे छिनाले में फंस गई है कि सारा देश मीडिया में चल रहे व्यवस्था का मुजरा देख रहा है । पूरा समाज मीडिया और माफिया आपरेटेड बन गया है । अब मीडिया ही आरोप तय करता है, वही मुकदमा चलाता है और अंत में अपनी तरह से अपनी तरह का फैसला भी सुनाता रहता है और विडम्बना यह कि वह यह सब जनतंत्र की दुहाई देकर करता है, जबकि अपनी आलोचना का हक वह किसी को नहीं देता और अपने आत्मावलोचन के लिए तो उसके पास समय ही नहीं है । ऐसी बातें सुनने की घड़ी में वह अपने कान से हियरिंग-एड निकाल लेता है।

राजनीति ने तो भाषा, शिक्षा, संस्कृति जैसे प्रश्नों पर विचार करना बहुत पहले ही स्थगित कर रखा है । भारत में राजनीति एक नया पूंजी निवेष का क्षेत्र है। इसलिए वह तो देश को बाजार तथा एन.जी.ओ. के भरोसे छोड़कर मुक्त हो गई है । यों भी उसमें प्रविष्टि की अर्हता हत्या और घूस लेकर कानून के शिकंजे से सुरक्षित बाहर आ जाना हो गया है - और जो इन अर्हताओं से रहित हैं, वे देश को एक प्रबंध संस्थान की तरह चलाने को भूमण्डलीकरण की वैश्विक दृष्टि मानते हैं और वे उसके राजनीतिक प्रबंधक का काम कर रहे हैं । यह राजनीतिक संस्कृति की समाज से विदाई की घड़ी है, जिसने संस्थागत अपंगता को असाध्य बन जाने की तरफ हाँक दिया है । हम क्या थे ? हम क्या हैं और क्या होंगे अभी ? जैसे प्रश्नों पर बहस करना मूर्खों का चिंतन हो गया है । जबकि ये प्रश्न शाश्वत रहे हैं और हमेशा ही उत्तरों की मांग करते रहेंगे । इसलिए हमें अपने इतिहास को जीवित बचाकर रखना जरूरी है, क्योंकि भविष्य का जब सौदा होगा उसमें हमारी कम हमारे अतीत की भूमिका बहुत बड़ी होती है । वरना वह भाषा की मृत्यु के साथ दफ्न हो जायेगा। वे हमें हालीवुड की तरह भविष्यवादी फंसातियों में जीने के लिए तैयार किये दे रहे हैं।

कुछ दिनों पूर्व विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ, उसमें तालियाँ कूटने के बजाय इस प्रश्न पर बहुत शिद्दत से सोचा जाना चाहिए था कि क्या हम शेष संसार के मुल्क बोस्निया, जावा, चीन, आस्ट्रिया, बल्गारिया, डेनमार्क, पुर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, बेल्जिमय, क्रोएशिया, फिनलैण्ड, फ्रांस, हंग्री, नीदरलैण्ड, पौलेण्ड या स्वीडन की तरह अपनी ही मूल भाषा में शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र के लिए जगह बनाने के लिए क्या कर सकते हैं । क्योंकि, बकौल सेम पित्रौदा सिर्फ एक प्रतिशत ही है जो लोग अंग्रेजी जानते हैं । या कि हमें अफ्रीकी उपमहाद्वीप बन जाने की तैयारी करना है । अंत में अफ्रीका महाद्वीप में स्वाहिली लेखक की पीड़ा को भारतीय उपमहाद्वीप की पीड़ा का पर्याय बनाना है। उसने कहा कि जब ये नहीं आए थे तो हमारे पास हमारी कृषि, हमारा खानपान, हमारी वेशभूषा, हमारा संगीत और हमारी अपनी कहे जाने वाली संस्कृति थी - इन्होंने हमें अंग्रेजी दी और हमारे पास हमारा अपने कहे जाने जैसा कुछ नहीं बचा है । हम एक त्रासद आत्महीनता के बीच जी रहे हैं ।
हमारी हिन्दी पत्रकारिता को सोचना चाहिए कि विदेशी धन और खुद को मीडिया मुगल बनाने के बजाय वह सोचें कि अन्तत: भारतीय भाषाओं को आमतौर पर और हिन्दी को खासतौर पर हटाकर वह देश को आत्महीनता के जिस मोड़ की तरफ घेरने जा रही है । वह उस कल्चरल इकोनॉमी की सुनियोजित युक्ति है, जो एक नव उपनिवेषवाद से जन्मी हैं। इसके साथ यह भी सोचें कि कहीं ऐसा न हो कि वे केवल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आरती उतारने वाले भर रह जायें और देवपुरूष कोई अन्य हो जाये । बाहर की लक्ष्मी आयेगी तो वह विष्णु भी अपना ही लायेगी । आपके क्षीरसागर के विष्णु सोए ही रह जायेंगे ।

क्या हमारी भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी के ये हिंग्लिशियाते अखबार इस पर कभी सोचते है कि पाओलो फ्रेरे से लेकर पॉल गुडमेन तक सभी ने प्राथमिक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ माध्यम को मातृभाषा ही माना है और हम हिन्दुस्तानी है कि हमारे रक्त में रची बसी भाषा को उसके मास मज्जा सहित उखाड़कर फेंकने का संकल्प कर चुके हैं । दरअसल, औपनिवेशक दासत्व से ठूंस-ठूंसकर भरे हमारे दिमागों ने हिन्दी के बल पर पेट भर सकने की स्थिति को कभी बनने ही नहीं दिया, उल्टे धीरे-धीरे शिक्षा में निजीकरण के नाम पर शहरों में गली-गली केवल अंग्रेजी सिखाने की दुकानें खोलने के लिए लायसेंस उदारता के साथ बांटे गये । उन्हें इस बात का कतई इल्हाम नहीं रहा कि वे समाज और राष्ट्र के भविष्य के साथ कैसा और कौन सा सलूक करने की तैयारी करने जा रहे हैं । पूंजीवादी भूमण्डलीकरण से देश स्वर्ग बन जायेगा, ऐसी अवधारणाएँ हिन्दी में अधकचरे ग्लोबलिस्टों की इतनी भरमार है कि वे एक अरब लोगों के भविष्य का मानचित्र मनमाने ढंग से बनाना चाहते हैं - और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पूरा देश गूंगों की नहीं अंधों की शैली में आंख मीचकर गुड़ का स्वाद लेने में लगा हुआ है, उनकी व्याख्याओं में भाषा की चिंता एक तरह का देसीवाद है जो भूमण्डलीकरण के सांस्कृतिक अनुकूलन को हजम नहीं कर पा रहा है । वे इसे मरणासन्न देसीवाद का छाती-माथा कूटना कहकर उससे अलग होने के लिए उकसाने का काम करते हैं । ताकि अंग्रेज़ी के विरुध्द कहीं कोई भाषा-आंदोलन खड़ा न हो जाए।

भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के अवतार पुरूष होने का जो डंका पीटा जाता है, उसके बारे में एक अमेरिकी विशेषज्ञ ने एक वाक्य की टिप्पणी में हमारी औकात का आंकलन करते हुए कहा कि भारत के आई.टी. आर्टिजंस तो आभूषणों की दुकानों के बाहर गहनों को पालिश करके चमकाने वाले लोग भर हैं । माइक्रोसाफ्ट उत्पाद बनाता है और भारतीय उसे केवल अपडेट करते हैं । यह वाक्य हमारे सूचना सम्राट होने के गुब्बारे की क्षण्ाभर में हवा निकाल देता है और दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक बात यह है कि हम इसी के लिए (आई.टी. आर्टिजंस) के लिए अपनी भाषाओं को मार रहे हैं। हम चमड़े के लिए जिंदा गाय मारने पर आमादा है ।

यदि हमें हिन्दी को आमतौर पर और तमाम अन्य भारतीय भाषाओं को खासतौर पर बचाना है तो पहले हमको प्राथमिक शिक्षा पर एकाग्र करना होगा और विराट छद्म को नेस्तानबूत करना होगा, जो बार-बार ये बता रहा है कि अगर प्राथमिक शिक्षा में पहली कक्षा से ही अंग्रेजी अनिवार्य कर दी जाये, तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन जायेगा । जहाँ तक भाषा में महारत का प्रश्न है, संसार भर में हिन्दुतान के ढेरों प्रतिभाशाली वैज्ञानिक उद्योगपति और रचना लेखक रहे हैं, जिन्होंने अपनी आरंभिक शिक्षा अंग्रेजी में पूरी नहीं की । इसके साथ सबसे महत्वपूर्ण और अविलम्ब ध्यान देने वाली बात यह है कि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में निरन्तर बढ़कर विकराल होते निजीकरण पर भी सफल नियंत्रण पाना होगा । तभी हम अपना जैसा कहे जा सकने वाला थोड़ा बहुत सुरक्षित रख पाने की स्थिति में होंगे । भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में बदलने का परिणाम यह होगा कि आने वाले पच्चीस वर्ष बाद हमारी हजारों सालों की भारतीय भाषाएँ बच्चों के लिए केवल जादुई लिपियाँ होंगी । इसलिए अगर हमें अपनी भाषाओं को बचाना है तो ऐसे सुनियोजित षडयंत्र के ख़िलाफ हर उस आदमी को उन अख़बारों को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से पत्र लिखे जाने का निरन्तर अभियान चलाया जाना चाहिए और उन्हें कहना चाहिए कि वे भाषा के ख़िलाफ किये जा रहे इस विराट छल को अविलम्ब स्थगित करें अन्यथा वे उसे पढ़ना बंद कर देंगे। भाषा भी राष्ट्र की धरोहर है और उन्हें नष्ट करने की कोशिशें राष्ट्रद्रोह से कोई छोटा अपराध नहीं है। मुझे लगता है, यही आख़िर वक्त है, जब उत्सवधर्मी मानसिकता के खिलाफ आंदोलन धर्मिता के लिए पर्याप्त अवसर और अवकाश बनायें।