बुधवार, 6 अप्रैल 2011

हमारे समय में भ्रष्टाचार का भाष्य


भारतीय व्यवस्था एक ऐसा महा आख्यान है, जिसमें संजय की दिव्य-दृष्टि भी है और धृतराष्ट्र का अंधापन भी। दुर्भाग्य यह है कि इस शताब्दी का संजय संघर्ष के बखान के बजाय नाच और गानों में आनंदवाद की जय-जयकार कर रहा है। व्यवस्था के कोठे पर भ्रष्टाचार का मुजरा देखता हुआ, वह मनोरंजन में डूबा हुआ है। वह प्रश्न करने के बजाय रेडीमेड उत्तरों को लेकर संतुष्ट है। क्या यह पीढ़ी नये प्रश्नों के ताज़ा उत्तर खोजने की कोशिश करेगी? प्रस्तुत है भ्रष्टाचार के चरित्र और उसकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर एक विवेचनात्मक टिप्पणी।


शताब्दियों से हमने खुद को लगातार एक त्रासद प्रश्न के उत्तर की खोज में जोते रखा- और, वह प्रश्न यह है कि मनुष्य अंतत: भ्रष्ट क्यों हो जाता है ? बहरहाल, अब जबकि भूमण्डलीकरण की इस ताज़ा हड़बोंग के साथ भारतीय समाज में, वर्चस्व का एक नया चरण आरम्भ हो चुका है; इसमें 'ज्ञान`, 'दौलत` और 'हिंसा` की एक ऐसी दुरूह त्रयी गढ़ी जा रही है, जो 'भ्रष्टाचार` और 'सत्ता` के मध्य अटूट और अंतरंग सम्बन्ध बनाती है। इसलिए, वित्तीय पूँजी के इस अस्थिर कालखण्ड में सत्ता का चरित्र उत्तरोत्तर बदलता ही चला गया है। यह नया सत्ता-विमर्श है, जो एक ज़ब़रदस्त ज़िरह की माँग करता है। महान् अर्थशास्त्री कौटिल्य ने जिस तत्व को आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व 'राज्य के विकास को अवरूद्ध करने वाले घटकों में गिना था`- वह थी, घूसखोरी। इसे उन्होंने `भ्रष्ट आचरण` की संज्ञा दी थी। उन्होंने कहा था, 'राज्य निर्धारित सार्वजनिक पद का निजी लाभ के लिए दुरूपयोग-भ्रष्टाचार है।` इसलिए ऐसे कर्म की घोर निंदा की जानी चाहिए और इसके लिए एक निश्चित दण्ड विधान भी होना चाहिए।


यहाँ प्रसंगवश हम एक चीनी यात्री के उस विस्मय को याद कर सकते हैं, जब वह चाणक्य को देखता है कि रात में उसने अपना अभी तक जल रहा 'दीया` बुझाया और दूसरा दीया जला लिया। बावज़ूद इसके कि पहले में तेल शेष था। चाणक्य का जवाब था कि अभी तक वह राज्य का कामकाज निपटा रहा था और वह जलता हुआ दीया राज्य का था- निजी कामकाज के लिए उसका उपयोग भ्रष्टाचार की श्रेणी में आयेगा और चूंकि अब मैं अपना खुद का कामकाज आरम्भ करने वाला हूं, इसलिए, मेरा निजी दीया जला रहा हूं। कहने का कुलज़मा मक़सद यह कि यह उदाहरण 'राज्य में सत्ता प्राप्त व्यक्ति के नैतिक आचरण के तत्कालीन प्रतिमान को रेखांकित करता है`, जहाँ आत्मानुशासन के लिए निर्धारित वर्जनाएँ रही आयी थीं।


दुर्भाग्यवश नई सदी में विदेशी पूँजी के देसी पैरोकारों ने भ्रष्ट आचरण का एक नितान्त नया और विचित्र संस्करण तैयार कर लिया है। भ्रष्टाचार की, नैतिकता की दृष्टि से तैयार की गई पूर्व की दीर्घकालिक परिभाषाएँ निर्ममता के साथ ध्वस्त कर दी गई हैं। बहरहाल, भ्रष्टाचार को लेकर अब बगै़र उत्तेजित हुए, एक सामाजिक स्वीकृति तैयार कर दी गई है। रिश्वत ऊपर की कमाई का गौरव बन गई है। ऊपर की और अतिरिक्त कमाई ऐसी है जैसे मुकुट में मोरपंख। विदेशी पूँजी के प्रताप के प्रपात मे नहाते हुए 'नैतिकता` से मैल की तरह मुक्ति पा ली गई है। बाजार की अधीरता के सामने हमारा सर्वस्व स्वाहा हो गया है। मसलन, अब रिश्वत की एक नई व्याख्या की जा रही है कि रूढ़-नैतिकतावादी लोग अर्थशास्त्र की गति को नहीं जानते। व्यापार पूँजी के प्रवाह के साथ चलता है। उसे हर क्षण गति चाहिए। नैतिकता एक स्पीडब्रेकर है। वह अवरोध है। इसलिए उसे अविलम्ब हटाया जाना चाहिए।


'रिश्वत` शब्द नैतिकतावादियों के द्वारा पूँजी की गति पर लगाया गया लांछन है। दरअस्ल, जिसे आप रिश्वत कहते हैं, वह तो 'स्पीड मनी` है। वह काम की इच्छित गति के लिए ल्युब्रिकेण्ट की भूमिका अदा करती है। रिश्वत कह कर उसे बदनाम न किया जाये। यह चंचला पूँजी की नैतिकी है, जिसमें रिश्वत राज्य के विकास को अवरूद्ध नहीं करती, बल्कि उसे आसान बनाती है। कहने की जरूरत नहीं कि, यह भारत के व्यापार और उद्योगों से जुड़े अभिजनों (इण्डस्ट्रियल-इलिट) के लिए कानून की जटिलता से मुक्ति का मार्ग है। दरअस्ल, मुक्त अर्थव्यवस्था के शिकंजे में वह अनिश्चतताओं से बुरी तरह घिर गया है। लेस्ली पामर ने हाँगकांग, भारत और इण्डोनेशिया के समाजों के उच्च वर्ग में व्याप्त भ्रष्टाचार का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए कहा कि यह वर्ग, एक किस्म की 'मेन्युफैक्चर्ड-अनसर्टेनिटीज़` के बीच फंस गया है। अर्थात् अप्रत्याशित अनिश्चितताओं से घिर गया है, जिसके चलते वह भविष्य की आश्वस्ति की आतुरता में, रिश्वत को कामकाज की जटिलता को कम करने का कारगर हथियार मानता है।


रिश्वत आसानियाँ पैदा करती है, जबकि विरोधाभास यह है कि समाज में भ्रष्टाचार की व्याप्ति की सबसे ज्यादा निंदा भी यही वर्ग करता है। वह उसे समाप्त करने का हल्ला भी करता है, और उसको ऑक्सीजन भी यही वर्ग देता है। अब नैतिकता को, रिश्वत न दे पाने वाले लोग, रिश्वत न ले पाने वाले लोगों का छातीकूट रूदन बताते हैं। उन्होंने मान लिया है कि नैतिकता एक अनुर्वर किस्म का उपहासात्मक उपदेश है। नैतिकता की, ऊँचे आवाज में बात करने से सत्ताएँ बनती हैं, लेकिन नैतिकताओं को अमल में लाने से सत्ताएँ ढह जाती है। अत: उससे एक निश्चत दूरी जरूरी है। नैतिकता को किफायती नैतिकता में बदलना आवश्यक है। क्योंकि इस बहुराष्ट्रीय निगमों के वर्चस्व वाले बाजार-समय में कार्पोरेटी चिन्तकों के द्वारा बार-बार कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार 'एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्था` में आवश्यक प्रतिस्पर्धा को बढ़ाता है। नजीजतन, इससे व्यवस्था की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। रिश्वत की ऊर्जा व्यवस्था को स्फूर्त बनाती है। रिश्वत पाकर काम करने वाला कर्मचारी अतिरिक्त सक्रियता दिखाने लगता है। इसलिए कुछ लोग रिश्वत की वैधता की भी वकालत करते हैं। यह वैसा ही है जैसे समलैंगिकता को आबादी रोकने में कारगर बताया जाता है। जबकि हकीकत में यह चंचला पूँजी की विकृत नैतिकी ही है।


जैसा कि, मैंने ऊपर कहा कि भारतीय अभिजन शायद इतिहास की सर्वाधिक अनिश्चितताओं के दौर से गुजर रहा है, ऐसे में असुरक्षा की जो भावना पैदा होती है, वह उसमें कानून के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा करती है। क्योंकि, उन्होंने कानून को विकास का अड़ंगा बता दिया गया है। जिस देश और समाज की व्यवस्था में, 'वर्क टू रूल`, ईमानदारी के प्रति वचनबद्धता नहीं है, बल्कि एक क़िस्म की धमकी है। वहाँ 'वर्क टू रूल` का अर्थ, व्यवस्था के इंजिन को ठप कर देने जैसा है। 'वर्क टू रूल` का अर्थ यह हुआ कि सामान्यजन के पास यह संदेश भेजना है कि काम अब कानून के मुताबिक होगा, तो काम होना ही असंभव हो जायेगा। रिश्वत कानून के अड़ंगे को फाँदने में मदद करती है। ज़ाहिरा तौर पर देखें तो शायद भारतीय समाज बाहर से सांस्कृतिक 'एकरूपता` का भ्रम पैदा करता है, लेकिन हकीकतन हमारा पूरा समाज, बदलते समय में धीरे-धीरे, दो स्पष्ट भागों में बँट चुका है।


एक वह हिस्सा जहाँ पूँजी का अपार आधिक्य है और दूसरा वह हिस्सा, जहाँ पूँजी का अपार अभाव है। यह नया बाइनरी अपोजिशन है। 'हम` और 'वे` का नया बँटवारा। और दोनों ही एक दूसरे से युद्धरत है। एक के लिए उसका 'पेट` ही उसकी नैतिकी है, जबकि दूसरे के लिए उसकी 'पूँजी` ही उसकी 'नैतिकी` है। इन्हीं के अनुसार उनके वर्ग-आचरण तय होते हैं- पेट के लिए कोई आचरण भ्रष्टता की श्रेणी में नहीं आता, ठीक उसी तरह पूँजी के लिए भी सभी आचरण भ्रष्टता की परिभाषा से बाहर है। पूँजी अपशिष्ट से मिले या अपवित्र से, कोई आपत्ति नहीं। मुझे अक्सर बचपन में पढ़ी एक कहानी की बिल्कुल पहली पंक्ति याद आती है, जो इस तरह थी 'राजू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।` प्रथम पंक्ति में ही एक वर्गद्रोही दृष्टि छुपी हुई है, जो प्रकारान्तर से यह बताती है कि गरीब तो बेईमान और भ्रष्ट होता ही है। यह तो राजू की निजी विशेषता थी कि वह गरीब होने के बावजूद ईमानदार था। बहरहाल, यही वह दृष्टि है, जो बार-बार यह बताने का अथक प्रयास करती है कि गरीबी ही भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है। इसे प्रवृत्तिमूलक बताकर मुक्ति पा ली जाती है। वे छूट जाते है, जो 'पूँजी`, 'ज्ञान` और 'हिंसा` की त्रयी के हिस्से हैं। वे प्रतिष्ठा-मूल्य बन जाते हैं।


राबर्ट लेईकेन का विश्लेषण इससे उलट है कि आधे-अधूरे सामाजिक और आर्थिक सुधार भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। जहाँ सुधार नहीं किया जा सकता, राज्य उस क्षेत्र में जनाकर्षण (पॉपुलर) वाले कार्यक्रम शुरू करता है और यहीं से भ्रष्टाचार का संस्थानीकरण शुरू हो जाता है। ऐसे में 'व्यक्ति' अकेला, और संस्था संगठित होती है। नतीजतन, व्यक्ति समर्पण करने लगता है। संघर्ष की संभावना धूमिल हो जाती है और रिश्वत उसे एकमात्र संकटमोचक अस्त्र की तरह संभावनापूर्ण दिखाई देती है। यह पॉवर स्ट्रक्चर का आन्तरिक तर्क बन जाती है। भारत में अर्थशास्त्रियों की एक नई नस्ल भ्रष्टाचार को शीतयुद्धोत्तर विश्व में एक अन्तर्राराष्ट्रीय महामारी की तरह बता रही है, जिससे बचना संभव नहीं है। उसे वे 'ग्लोबल-फिनामिना` बताते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने इसमें श्रीवृद्धि करने में मदद की है। जबकि, भ्रष्टाचार स्वदेशी हो या विदेशी, वह मूलत: राज्य के विकास को अवरूद्ध करके उसे सामाजिक परिवर्तन की व्याधिग्रस्त व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत कर देता है।


बहरहाल, इतने सारे घनमथन और विवेचन के बाद प्रश्न यहीं आकर टिकता है कि आज जितना भ्रष्टाचार सार्वजनिक क्षेत्र में बताया जाता है, क्या निजी क्षेत्र में उससे कम है ? क्या दोनों के बीच एक गहरी अन्तर निर्भरता नहीं है ? वित्तीय पूँजी के निष्करूण युग ने भ्रष्टाचार को ही एक संस्थान का रूप दे दिया है और उसके संस्थानीकरण में वेल्थ-वायलेंस और नॉलेज की त्रयी काम कर रही है। उसने राजनीति को भी पूँजी निवेश का नया और प्रतिस्पर्धी परिक्षेत्र बना दिया है। ऐसे में भ्रष्टाचार के विरूद्ध मात्र नैतिक-तर्कों के तीरों से कुछ नहीं होगा। सामाजिक विषमता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायेगी, जो वर्ग संघर्ष की भी शक्ल नहीं ले पायेगी। चूंकि बाजारवाद ने अपनी लोक-लुभावन रणनीति से जनता में विषमताओं के लेकर उठने वाली आपत्तियों को छीन लिया है। इसलिए, जनआंदोलन की भूमिका अनुर्वर हो चुकी है। मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक बाजार ने उसे अधीन कर लिया है। वह उसकी चाकरी में लगा हुआ है। इसलिये वह आंदोलनों नहीं उत्सवों को महत्व देता है। हर समय एक निरन्तर एक उत्सवीकरण जारी है और सारी समस्याएँ मूल्यों के विलोपन से जुड़ चुकी है।


सामूहिकता और समाज केन्द्रितता को विकास की अवधारणा से हटाकर उसे 'व्यक्ति केन्द्रित` बना दिया गया है। सब अकेले हैं और सबको आसमान छूना है। सामूहिकता से नहीं, अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य से। ऐसे में साधन की शुचिता का कोई मूल्य नहीं है। सिर्फ साध्य ही सामने है। व्यक्तिगत उन्नति की 'अधीरता` एक उन्माद की तरह चौतरफा फैल गयी है, वही भ्रष्टाचार के लिए सबसे अधिक उर्वर है। बस पूँजी चाहिए, फिर वह कहीं से भी हो, उसमें नैतिक अनैतिकता का प्रश्न अप्रासंगिक है। सब जल्दी में है, सबको कहीं न कहीं पहंुचना है। ऐसे में नैतिकता का स्पीडब्रेकर किसी को बर्दाश्त नहीं। आँतें खराब हो तो चेहरे मेकअप करने से काम नहीं चलता। अर्थव्यवस्था में भी कास्मेटिक सर्जरी काम नहीं करती।


आज मूल्यों की स्थिति यह है कि वे शाश्वत हैं या सापेक्ष, परम्परागत हैं या परिवर्तनशील- वे सब हमारे समय की हकीकत से युद्धरत है। वे जख्मी आंख से मनुष्य की ओर टकटकी लगाकर लगातार ताक रहे हैं कि उन्हें उम्मीद है कि उनको बचाने की बेकली में में दौड़ते हुए कुछ आगे आएँगे, लेकिन विडम्बना यह कि आने वाले उसे बचाने नहीं बल्कि उसको दफ्ऩ करने के लिए दौड़कर आ रहे है। कर्मठता संकटग्रस्त है और ईमानदारी प्रश्नांकित। मूल्यों के हनन का यह, वह सर्वग्रासी दौर है, जिसमें अभी तो एक शून्य ही बन रहा है। सत्य-असत्य के युद्ध में सत्यमेव जयते का विश्वास पिछली सदी की पीढ़ी की धरोहर थी और सबसे अधिक आश्वस्त करने वाली उक्ति थी, वह चिंदा-चिंदा हो चुकी है। क्या एक उज्ज्वल भविष्य की पताकाओं को हम ऐसे ही चिथड़ा-चिथड़ा होते देखते रहेंगे, कि ठिठक कर कुछ करेंगे भी।


विडम्बना यह है कि व्यवस्था की महागाथा में धृतराष्ट्र का अन्धापन भी होता है और संजय की दिव्यदृष्टि भी। लेकिन, २१ वीं सदी की महाभारत में संजय सिर्फ वित्तीय पूँजी का मुजरा देख रहे हैं और दिखा रहे हैं। वे तालियाँ कूट रहे हैं। मुटि्ठयाँ बांधकर संघर्ष के संकल्प को उन्होंने घाटे का सौदा समझ लिया है। और दुर्भाग्यवश नई पीढ़ी सौदागर बनने का ही स्वप्न बुन रही है। यह भूल कर कि जब भविष्य का सौदा होगा, तो उसमें हमारे 'नैतिक अतीत` की बहुत बड़ी भूमिका होगी। याद रखिये नैतिकताएँ कभी भी दफ्ऩ नहीं होती- वे कब्र से उठ खड़ी होती हैं और वे पीढ़ियों से पूछती है कि तुम भ्रष्ट क्यों हो रहे हो ? भ्रष्टाचार का तुम कौन-सा भाष्य करने जा रहे हो ?

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