बुधवार, 6 अप्रैल 2011

चिकनी सतहें, फिसलते बयान

पिछले दिनों गांधी-नेहरू की ऐतिहासिक विरासत वाले राजनीतिक दल के महा-अधिवेशन में उसके एक प्रवक्ता ने स्वयं को अपनी समझ से लगभग एक अपराजेय 'तर्कऱ्योद्धा' की तरह प्रस्तुत करते हुए कहा कि 'ये अभी तक कहते आ रहे थे कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान क्यों होता है ? मगर अब आतंकवादियों में हिन्दुओं के नाम आने लगे हैं तो अब इनका क्या कहना है ?'


अखबारों में छपी अधिवेशनों की रपटों में यह भी दर्ज किया गया कि 'कथन' पर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए तालियाँ बजायीं। यानी कुल मिलाकर लगा कि वे भी इस सबसे प्रसन्न हो रही हैं कि एक 'बहु-प्रतीक्षित सुयोग' अब कहीं जाकर आया है और वे अब उन्हें इसके कारण 'मुंहतोड़' जवाब देने की स्थिति में आ गये हैं। यह स्थिति निश्चय ही उनके लिए एक राजनीतिक सुविधा है।


रपटों में आगे चल कर यह भी स्पष्ट किया गया कि अपनी राजनीतिक-विदुषी की तालियों के बाद पण्डाल के कोने-कोने से तालियाँ बज उठीं। यह तालियों का एक समवेत 'तुमुलनाद' था, जो प्रसन्नता की 'मुंहतोड़' लहर में लिपटा हुआ था। वे तालियाँ नहीं, तमाचे थे, जो 'उन' लोगों के वक्तव्य के गालों पर तड़ातड़ पड़ रहे थे।

लेकिन, यह तथ्य, यह कथन, यह दृश्य, एक भारतीय के लिए तालियाँ बजाने का नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र और समाज के लिए सिर धुनने का है, जबकि भारत के 'बहुसंख्यक समुदाय' से आतंकवादी सामने आने लगे हैं। यह एक भयानक सूचना है, जो भारतीय जनतंत्र की धर्म-निरपेक्ष देह में कंपकंपी पैदा कर रही है।

अभी तक देश के समाचार-पत्रों तथा तमाम पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों पर समाजशास्त्रियों की जमातें अपने अत्यन्त 'सूक्ष्माति-सूक्ष्म' विवेचनों और विश्लेषणों के जरिये यह बात बार-बार बताती और समझाती आ रही है कि अल्पसंख्यकों के बीच व्याप्त 'असुरक्षा-बोध' ही वह मुख्य कारण है, जो 'आतंकवाद' को जन्म दे रहा है, तो क्या अब भारत का 'बहुसंख्यक-समुदाय' भी असुरक्षित अनुभव करने की स्थिति में आ गया है, जहाँ से 'आतंकवादी' बरामद होने लगे हैं ? फिर यह भी कहा जाता रहा है कि अभी तक भारत में सरकारें हमेशा 'बहुसंख्यकों' की ही रही हैं और इसलिए 'बहुसंख्यक' की तरफ से उनकी सुरक्षा में 'राज्य' ही प्रस्तुत होता है। बहरहाल, इस स्थापना से यह तर्क सामने आता है कि क्या 'राज्य' ने अब बहुसंख्यकों के हितों की रक्षा से अपने हाथ झाड़ लिये हैं ? और अब वह बहुसंख्यकों को भुला चुका है ? कहने की जरूरत नहीं कि एक शांत और लगभग निरावेशी-सा रहा आया 'समुदाय' यदि इस दुरावस्था तक पहुंच रहा है तो निश्चय ही इसके कारण सत्ताओं की नीतियों के भीतर ही छुपे पड़े हैं और संयोग से कांग्रेस के पास ही सत्ता के संचालन का लम्बा कालखण्ड रहा है। बीच-बीच में कांग्रेस यदि सत्ता से बाहर रही तो भी वह ठीक उतनी ही देर के लिए बाहर रही, जब कक्षा में अपना 'होमवर्क' (?) पूरा न करने के लिए शिक्षक एक छात्र को बाहर खड़ा कर देता है। मतदाता ही जनतंत्र में सबसे बड़ा शिक्षक होता है और कांग्रेस हमेशा से ही उसे लुभाने में माहिर रही है।


इसके अतिरिक्त उसमें मतदान केन्द्रों और कक्षों को प्रयोगशाला बनाने की बुद्धि और चतुराई दोनों रही है। बहरहाल, अब यदि 'बहुसंख्यक समुदाय' में भी कैंसर कोशिकाओं की तरह आतंकवाद पनप रहा है, तो यह भी उस राजनीति का ही हासिल है, जो 'दल को देश' और 'देश को दल' बनाने और बदलने के असमाप्त प्रयोग में लगी रही है। देश और समाज उसकी प्राथमिकताओं के अंतिम क्रम मे आता रहा है। इसमें सभी एक-दूसरे से स्पर्द्धा में लगे रहे हैं।

यहाँ एक बात सहसा याद आ रही है कि अल्पसंख्यकों द्वारा यह भी कहा जाता है कि वे हमेशा दंगों के भय से तभी मुक्त रहते हैं, जब उनके यहाँ राज्य में गैर-कांग्रेसी सरकार रहती है। क्या यह टिप्पणी साम्प्रदायिक समस्या के हल किये जाने में नीयत की खोट की तरफ संकेत नहीं करती ? क्या यह हकीकत नहीं रही है कि कांग्रेस की राजनीतिक युक्तियाँ हमेशा से ही इतनी और ऐसी उलझी रही आयी हैं कि 'हिन्दुत्व' का राजनीतिक विरोध करते हुए वे धीरे-धीरे सम्पूर्ण 'हिन्दू विरोध' में चले जाते हैं। अलबत्ता कहें कि 'हिन्दुत्व की भर्त्सना' कांग्रेसी होने की अनिवार्य पहचान है।

दरअस्ल कांग्रेसी कान को 'हिन्दुत्व' के भीतर से सिर्फ वही आवाज ऊँचे 'सुर' में सुनाई देती है, जिसे वह 'सुनना' चाहती है। उन सुरों को तो कतई नहीं, जो 'हिन्दुत्व' के 'वाम' हो सकते हैं। ऐसे 'सुर' उसके लिए हमेशा निषिद्ध सुर रहे हैं। वे हिन्दुत्व की 'पहचान' और 'विरासत' के बारे में हर आदमी को घोर दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक सिद्ध करने लगे। एक जरूरी धैर्य के साथ कान लगा कर यदि उस क्षीण-सी आवाज को सुना जाये तो संभव है, एक 'विश्वसनीय' अवधारणा के लिए वाजिब जगह निकल सके, लेकिन कांग्रेस ने तो अपने कान उस ओर से हमेशा के लिए बंद क लिये हैं और जब कांग्रेस 'प्रवक्ता' की जबान से बोलती है, तो लगने लगता है कि क्या उसने 'विवेक' को विदाई दे दी है। वह स्कूली बच्चों की वाद-विवाद प्रतियोगता की ऐसी मिसाल प्रस्तुत करने लगती है, जो मसखरी से ऊपर नहीं जाती। पिछले ही दिनों दल के इन्हीं वाचाल प्रवक्ता ने सारे 'बहुसंख्यक-समुदाय' को यह कह कर चौंका दिया था कि मुम्बई के ताज हादसे के ठीक पहले शहीद हेमन्त किरकिरे ने उन्हें फोन पर अपना भय व्यक्त किया था कि वे हिन्दू-आतंकवादियों से खतरा अनुभव कर रहे हैं। बाद इसके अपनी 'अबौद्धिक-वाचालता' को और अतिरेकी बनाते हुए आगे यह भी कहा कि 'मुसलमानों के लिए वे भगवान हैं।' इससे यह तो साफ हो गया है कि उन्हें दोनों ही समुदायों की 'धार्मिकता की रत्ती भर समझ नहीं है। वह केवल 'मुंहतोड़' मुहावरे में 'जीभ तोड़` भाषा बोल रहे हैं ? यह विचार के अधकचरेपन की अराजकता का सर्वाधिक उपयुक्त प्रमाण है। क्योंकि इस्लामिक-दर्शन के हिसाब से किसी मनुष्य को खुदा का दर्जा नहीं दिया जा सकता। फिर एक पुलिस अधिकारी इस्लाम के अनुयायियों का खुदा कैसे हो सकता है ?

याद रखना चाहिए कि 'हिन्दुत्व' उस तरह से 'मोनोलिथिक' नहीं है, जिस तरह से इस्लाम या ईसाई धर्म 'एक ईश्वर और एक पवित्र-पुस्तक' के सहारे है। हिन्दुत्व का भी 'वाम' हो सकता है, क्योंकि पूर्व में भी उसने 'आत्म विभाजन' के लिए जगह बनायी। 'आर्य-समाज' या 'ब्रह्मो-समाज' उसकी उसी क्षमता के द्योतक रहे हैं। याद रखिए, उत्तर-भारत में वामपंथ मंे आयी पीढ़ी के लोग, आर्य-समाजी परिवारों से आये थे। भगतसिंह, यशपाल, भीष्म साहनी आदि लोगों की पारिवारिक पृष्ठभूमि यही थी।

बहरहाल, विडम्बना यही है कि पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस द्वारा परिभाषित और प्रचारित 'राजनीतिक दृष्टि' के चलते हुआ यह कि हिन्दूवादी अपने 'हिन्दुत्व' की 'संरचनागत-आंतरिकता' के आधार पर उसकी परिभाषा करने के बजाय 'इस्लाम से होड़ लेती परिभाषा' गढ़ना चाहने लगा। निश्चय ही इसने इस्लाम को चोट नहीं पहुंचायी, बल्कि 'हिन्दुत्व' के सहिष्णु और समावेशी रूप-स्वरूप को बुरी तरह से आहत किया। कांग्रेस की इसी चरित्रगत चूक ने दक्षिणपंथी दलों के लिए ऐसी 'ऊहापोह' में फंसे 'बहु-संख्यक समुदाय' के मतदाताओं को 'पोस्टडेटेड चैक' में बदल दिया। वह चुनावों के समय बेशक भुनायी जा सकने वाली अचूक हुण्डी सिद्ध हुआ। इसके लिए कांग्रेस की वह भाषा, दृष्टि और नीति ही जिम्मेदार रही है, जिसने 'धर्मान्धता' से लड़ने के बजाय 'धार्मिकता' से लड़ना शुरू कर दिया। कांग्रेस में गांधी और नेहरू के द्वारा गढ़ी गयी 'धर्मनिरपेक्षता' की अवधारणा की धज्जियाँ ऐसी ही समझ के चलते उड़ायी गयी है। निश्चय ही कांग्रेस के कुंवर की भी समझ यही है, प्रवक्ता तो सिर्फ उनके 'इको-प्वाइण्ट' हैं, हाँ ऐसी फूहड़ प्रतिध्वनियाँ गूंज-गूंज कर भारतीय बहुसंख्यक के कानों में प्रदूषण का प्रतिशत बढ़ाती रहने वाली है।

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