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पिछले कुछेक वर्षों से भारत में भी अमेरिकी तर्ज पर समलैंगिकों के अधिकारों को लेकर, बुद्धिजीवियों की एक खास बिरादरी संगठित होकर, समवेत-स्वर में लगातार माँग करती आ रही है कि भारतीय न्याय ग्रंथों से भी उस कानून को अविलंब हटा दिया जाए, जो 'समलैंगिकता को 'अप्राकृतिक-मैथुन` मानकर, उसे अपराध की श्रेणी में रखता चला आ रहा है। वे इस कानून को 'राज्य` द्वारा मानवता के विरुद्ध किया जा रहा एक ज न्य अपराध मानते हैं। अत: इसका निरस्त किया जाना जरूरी है।
इस माँग के औचित्य पर विचार करने के पहले, हम यहाँ यह भी देख लें कि गत दशकों में अमेरिकी समाज में 'समलैंगिकता को वैध बनाने के लिए किस तरह की रणनीतिक कवायदें की गइंर्। यह सब एक सुनिश्चित योजना के अंतर्गत ही हुआ। दरअसल, 'समलैंगिकता किसी भी व्यक्ति में 'जन्मना नहीं होती, बल्कि वह बचपन के निर्दोष कालखंड में अज्ञानतावश हो जाने वाली किसी त्रुटि के कारण उसे उसकी आदत का हिस्सा मान लिया जाता है। इस तरह यह 'नादानी में अपना लिए जाने वाली` वैकल्पिक यौनिकता है, जिसे चिकित्सकीय दृष्टि 'प्राकृतिक` या 'नैसर्गिक` नहीं मानती। जब व्यक्ति इसमें फँस जाता है तो बुनियादी रूप से उसके लिए यह एक किस्म की यातना ही होती है, जिसमें उसके समक्ष बार-बार अपना यौन सहचर बदलने की विवशता भी जुड़ी होती है। इसके अलावा, इसमें विपरीत सेक्स के साथ किए गए दैहिक आचरण की-सी संतुष्टि भी बरामद नहीं हो पाती।
वैसे, तमाम सर्वेक्षण और इस विषय पर एकाग्र अध्ययन बताते हैं कि को भी व्यक्ति 'स्वेच्छया समलैंगिक नहीं बनता। किशोरवय में पहली यौन-उत्तेजना और आकर्षण विपरीत सेक्स को लेकर ही उपजता है, समलैंगिक के लिए नहीं। न्यूयॉर्क के एलबर्ट आइंस्टाइन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ। चार्ल्स सोकाराइड्स की स्पष्टोक्ति है कि यौन-उद्योगों से जुड़े कुछ तेज-तर्रार शातिरों की यह एक धूर्त वैचारिकी है, जो समलैंगिकों को पैथालॉजिकल बताती है। इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता।
अमेरिकी समाज में समलैंगिकता की समस्या के ख्यात अध्येता डॉ. चार्ल्स अपनी पुस्तक 'होमोसेक्सुअल्टी : फ्रीडम टू फॉर` में अपना सूक्ष्म वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 'अमेरिकी समाज में यह तथाकथित समलैंगिक क्रांति` (?) बस यूँ ही हवा में नहीं गूँजने लगी, बल्कि यह कुछ मुट्ठी भर शातिर बौद्धिकों की 'मानववाद` के नाम पर शुरू की ग वकालत का परिणाम था, जिनमें से अधिकांश स्वयं भी समलैंगिक ही थे। ये लोग 'ट्राय एनी थिंग सेक्सुअल` के नाम पर शुरू की ग यौनिक-अराजकता को, नारी स्वातंत्र्य के विरुद्ध दिए जा रहे एक मुँहतोड़ उत्तर की शक्ल में पेश कर रहे थे। पश्चिम में, जब पुरुष की बराबरी को मुहिम के तहत स्त्री 'मर्दाना बनने के नाम पर, अपने कार्य-व्यवहार और रहन-सहन में भी इतनी अधिक 'पुरुषवत या 'पौरुषेय` होने लगी कि जिसके चलते उसका समूचा वस्त्र विन्यास भी पुरुषों की तरह होने लगा। नतीजतन, स्त्री की जो 'स्त्रैण-छवि` पुरुषों को यौनिक उत्तेजना देती थी, शनै: शनै: उसका लोप होने लगा। उसका आकर्षण घट गया।
कहना न होगा कि वेशभूषा की भिन्नता के जरिए, किशोरवय में लड़के और लड़की के बीच, जो प्रकट फर्क दिखा देता था, वह धूमिल हो गया। इस स्थिति ने लड़के और लड़के के बीच यौन-निकटता बढ़ाने में इमदाद की, जिसने अंतत: उन्हें 'समलैंगिकता की ओर हाँक दिया। निश्चय ही इसमें फैशन-व्यवसाय की भी काफी अहम भूमिका थी। फिर इस निकटता में अपने 'समलैंगिक-सहचर` से यौन-संबंध बनाते समय गर्भ रह जाने की महाविपत्ति से भी बचाव हो गया था। इस दोनों में से किसी को भी पिल्स लेने की आवश्यकता नहीं होती थी। तब 'एड्स` का आशीर्वाद भी नहीं था कि किशोरों को कंडोम को जेब में रखने की आज की-सी आजादी उपलब्ध होती। बहरहाल, इस यौन-मैत्री में रिस्क नहीं थी। कक्षा के 'क्लासमेट` को 'सेक्समेट` बनाया जा सकता था।
इसके साथ ही अमेरिकी समाज में एकाएक यौन-पंडितों की एक पूरी पंक्ति आगे आई , जिसमें अल्फ्रेंड किन्से, फ्रिट्स पर्ल तथा नार्मन ब्राऊन जैसे लोग थे। इन्होंने एक न स्थापना दी कि यदि ये संबंध 'फीलगुड` हैं, देन डू इट (भाजपा को पता नहीं था कि 'फीलगुड` जैसा सामासिक पद सबसे पहले सेक्स के संदर्भ में ही चलन में आया था।) इसमें भला अप्राकृतिक जैसा क्या है? 'फीलगुड` की वकालत करने वालों में विख्यात मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री हर्बर्ट मार्क्यूज भी शामिल हो गए, जिनकी पुस्तक 'वन डाइमेंशनल मैन : फ्रायड की वैचारिकी से भी अहले दर्जे का सम्मान और ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। इन सब लोगों ने संगठित होकर, अपने तर्कों के सहारे समलैंगिकता के साथ जुड़ा, 'अप्राकृतिक-मैथुन` वाला लांछन भी पोंछ दिया।
कहने की जरूरत नहीं कि यह भी एक रोचक दुर्योग ही रहा आया कि 'समलैंगिकता के इन पैरोकारों में से कुछेक लोगों के साथ समलैंगिक होने की कुख्याति भी जुड़ी थी, जो अभी तक केवल 'ऑफ दि रिकॉर्ड` थी, जिसका दर्जा कानाफूसी तक ही था-ठीक ऐसी ही कानाफूसी तक, जो भारत में हमारे समय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली उर्दू शायर फिराक गोरखपुरी के नाम के साथ चलती रही आ है, लेकिन इन लोगों ने अपने कथित बौद्धिक आंदोलन को शक्ति-सम्पन्न बनाने के लिए किया यह कि इन्होंने अभी तक 'कुटैव` समझी जाने वाली अपनी लत को महिमामंडित करते हुए सार्वजनिक कर दिया। कहा, 'हम समलैंगिक हैं और इसको लेकर हममें को अपराध-बोध नहीं है। यह हमारी इच्छितऱ्यौन स्वतंत्रता है, क्योंकि यौनांग का अंतिम अभीष्ट आनंद ही होता है- और इसमें भी हम आनंद प्राप्त करते हैं।`
बहरहाल, इस समूचे विवाद में रस लेकर, उसे तूल देने के लिए कुछेक प्रथम क्षेणी के प्रकाशकों ने 'मेक द होलवर्ल्ड गे` अर्थात् 'समूचे संसार को समलैंगिक बनाओ` के नारे को ोषणा-पत्र का रूप देकर छाप दिया। डेनिस अल्टमैन की पुस्तक 'होमो-सेक्चुअलाइजेशन आूफ अमेरिका भी इसी वक्त आ । अल्टमैन स्वयं भी समलैंगिक थे। उन्होंने १९८२ में कहा- 'समलैंगिक संबंध, अमेरिका में राज्य के सीमा से अधिक हस्तक्षेप के कारण आततायी बन चुकी विवाह-संस्था की नींव हिला डालने वाला, जबर्दस्त 'शार्ट-लिव्हड-सेक्सुअल-एडवेंचर` है। शादी के साथ जुड़ चुकी रेलू हिंसा वाले कानून के पेंचीदा पचड़ों में पड़ने से बचने का एकमात्र निरापद रास्ता है- स्विंगिंग-सिंगल हो जाना।`
बहरहाल, अब पुराना स्विंगिंग-सिंगल बनाम 'रमण-कुमार`, 'अमेरिकन-सिंगल्स` की तरह प्रसिद्ध हो चुका है। यह आकस्मिक नहीं था कि इन तमाम धुरंधरों ने व्याख्याओं का अंबार लगा दिया कि 'समलैंगिकता, निर्मम परंपरागत यौनिक-बंधन से मुक्ति का मार्ग है। 'यह मनुष्य` के स्वभाव का पुनराविष्कार है। उन्होंने कहा- 'समलैंगिक होना ठीक वैसा ही है, जैसे को व्यक्ति 'वामहस्त` होता है। लेफ्ट हेंडर।` कुल मिलाकर, 'समलैंगिकता से जुड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संकोच के ध्वंस के लिए तरह-तरह के विचारधारात्मक प्रहार किए जाने लगे। कुछ चर्चित कानूनविदों ने चर्चा में आने के लिए बहस को अपनी ओर से कुछ ज्यादा ही सुलगा दिया। लगे हाथ टेलीविजन चैनलों तथा हॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं ने इस पूरे विवाद और विषय को लपक लिया और धड़ाधड़ समलैंगिक व्यक्ति के जीवन को आधार बनाकर, उनके अधिकारों को वैध-माँग के रूप में प्रस्तुत करना आरंभ कर दिया। मुख्यधारा के नामचिु प्रकाशकों ने इसे अपने व्यापार का स्वर्ण अवसर मानकर बाजार को 'समलैंगिकता के पक्ष-विपक्ष पर एकाग्र पुस्तकों से पाट दिया। इस सबसे एक न बिरादरी बनी, जिसमें एकता का आधार बना, यौेनाचरण। यह बिरादरी 'जी-एल-बी-टी` बनाम 'गे, लेस्बियन, बाइ-सेक्सुअल तथा ट्रांस-ह्यूमन-सेक्सुअल कहला ।
इस सारे तह-ओ-बाल और गहमा-गहमी को पॉल गुडमैन जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षा के क्षेत्र में हाँक दिया और अचानक सेक्स-एजुकेशन की जरूरत और अनिवार्यता के पक्ष में लंबे-लंबे लेख तथा विमर्श होने लगे। संगोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ तथा जनचर्चाएँ होने लगीं। अमेरिकी टेलिविजन के लिए यह विषय 'दमदार और दामदार` भी बनने लगा। चैनलों पर जंग छिड़ ग । समाचार कक्षों में प्रीतिकर चख-चख चलने लगी। वही सब छोटे पर्दे पर भी दृश्यमान होने लगा। नैतिकता का प्रश्न उठाने वालों को 'होमो-फोबिया के शिकार कहकर, उनकी आपत्तियों को खारिज किया जाने लगा। उन्होंने कहा कि 'समलैंगिक` ठीक वैसे ही हैं, जैसे कि को गोरा होता है, या को काला। अत: इन्हें भी सभी किस्म की स्वतंत्रताओं को एंजाय करने का पूरा-पूरा अधिकार है। विद्यालयों में तेरह वर्ष की उम्र फलांग कर आते बच्चे ने अपने मॉम और डैड के सामने गरदन उठाकर ोषणा करना शुरू कर दी 'हे मॉम, आय`म गोइंग इन सपोर्ट आूफ गे-मूव्हमेण्ट`।
यह किशोरवय की दैहिकता से फूटती यौन-उत्तेजना का नया प्रबंधन था। उनका ब्रेनवाशिंग किया जा रहा था। ये युवा होने की ओर बढ़ने वाला वर्ग ही समलैंगिकता की सिद्धांतिकी का राजनीतिक मानचित्र बनाने वाला था। अत: यह वर्ग ही आंदोलन का अभीष्ट था। वे कहने लगे, 'समलैंगिकता आबादी रोकने में एक अचूक भूमिका निभाती है। तभी 'फिलाडेल्फिया नामक फिल्म आ , जिसमें सुनियोजित मनोवैज्ञानिक युक्तियाँ थीं, जो करुणा का कारोबार करती हु निर्विघ्न ढंग से ब्रेनवाश करती थीं। मसलन, फिल्मों में हर हत्यारे, गुंडे या बलात्कार करने वाले के जीवन के नैपथ्य में को न को करुण कथा होती ही है, जो डबडबाती आँख के आँसू से पात्र के अपराध को धो देती है। उदाहरण के लिए भारत का दर्शक कहेगा, 'भैया, जब औरत हाथ तक नहीं धरने देती तो अगला आदमी क्या करेगा- या तो हाथ आजमाइश करे या फिर 'लौण्डेबाजी`।
डॉ. चार्ल्स कहते हैं, मैंने चार दशकों के अपने चिकित्सकीय जीवन के अनुभव के दौरान यह पाया कि वे अपनी समलैंगिक जीवन पद्धति से सुखी नहीं है। दरअसल, एक चिकित्सक के समक्ष उनकी पीड़ाएँ पारदर्शी हो उठती हैं और वे सचा के बखान पर उतर आते हैं। वे उस कुचक्र से बाहर आना चाहते हैं। एक हजार में से ९९७ लोग अपनी समलैंगिकता को लेकर दु:खी हैं। बहरहाल, उपचार के पश्चात ऐसे सैकड़ों रोगी हैं, जिन्होंने विवाह रचाए और वे सुंदर और स्वस्थ्य संतानों के पिता हैं। मैंने यह भी पाया कि वस्तुत: समलैंगिक बनने में उनके माता-पिताओं की भूमिका ज्यादा रही है, जिन्होंने किशोरवय में पूर्ण स्वतंत्रता की माँग करने वाले अपने बच्चों के साथ सख्त सहमति प्रकट करने की बजाय उनकी 'स्वतंत्रता का सम्मान` करने का जीवनघाती ढोंग किया। समलैंगिकों में से अधिकांशों ने कहा कि वे झूठी स्वतंत्रता में जी रहे हैं, जबकि यह एक दासत्व ही है। यह वैकल्पिक जीवन पद्धति नहीं, सिर्फ आत्मघात है। समलैंगिकता जन्मना नहीं है। यह मीडिया द्वारा बढ़-चढ़कर बेचे गए झूठ का परिणाम है। गे-जीन थिअरी अमेरिकी समाज तथा दुनिया के साथ सबसे बड़ा छल है।
एक जगह डॉ। चार्ल्स कहते हैं, 'दरअसल हकीकत यह है कि समलैंगिको के अधिकारों की ऊँची आवाजों में माँग करने वाले मुझे चुप करना चाहते हैं, क्योंकि वे यौन उद्योग की तरफ से तथा उनके हितों की भाषा में बोल रहे हैं। वे मनुष्य के जीवन से उसकी नैसर्गिकता का अपहरण कर रहे है। वे मानवता के कल्याण नहीं, अपने लालच में लगे हुए हैं और उसी के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें प्रकृति या श्वर ने समलैंगिक (गे) नहीं बनाया है, इन्हीं लोगों ने बताया है। सोचिए, तब क्या होगा, जब सहमति से होने वाले सेक्स के लिए उम्र की सीमा चौदह वर्ष निर्धारित कर दी जाएगी। इस माँग से हमारे विद्यालय पशुबाड़े (एनीमल फार्म) में बदल जाएँगे।`
दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तान में एड्स तथा सेक्स टॉय के व्यापार के लिए राज्य स्वयं ही समलैंगिक संबंधों को कानून की परिधि से बाहर निकालने का इरादा प्रकट कर रहा है। वह समलैगिकों की 'ऑफिशियल आवाज` बन रहा है, ताकि अरबों डॉलर का योैन उद्योग यहाँ भी अपनी जड़ें जमा सके। यह सब धतकरम एड्स की आड़ में हो रहा है, जिसके चलते वहाँ की विकृति एड्स की स्वीकृति बन जाए। आज हम अभी भारत की आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को रोटी, कपड़ा, मकान तो छोड़िए शुद्ध पीने योग्य पानी नहीं दे सके हैं। ऐसे में उनकी इन लड़ाइयों को स्थगित करके समलैंगिकता की लड़ा लड़ना कितना विवेकपूर्ण कहा जा सकता है? क्या हम इसको लेकर को विवेक सम्मत विरोध नहीं कर सकते?