बुधवार, 6 अप्रैल 2011

समलैंगिकता की सनसनी और सच

पिछले कुछेक वर्षों से भारत में भी अमेरिकी तर्ज पर समलैंगिकों के अधिकारों को लेकर, बुद्धिजीवियों की एक खास बिरादरी संगठित होकर, समवेत-स्वर में लगातार माँग करती आ रही है कि भारतीय न्याय ग्रंथों से भी उस कानून को अविलंब हटा दिया जाए, जो 'समलैंगिकता को 'अप्राकृतिक-मैथुन` मानकर, उसे अपराध की श्रेणी में रखता चला आ रहा है। वे इस कानून को 'राज्य` द्वारा मानवता के विरुद्ध किया जा रहा एक ज न्य अपराध मानते हैं। अत: इसका निरस्त किया जाना जरूरी है।

इस माँग के औचित्य पर विचार करने के पहले, हम यहाँ यह भी देख लें कि गत दशकों में अमेरिकी समाज में 'समलैंगिकता को वैध बनाने के लिए किस तरह की रणनीतिक कवायदें की गइंर्। यह सब एक सुनिश्चित योजना के अंतर्गत ही हुआ। दरअसल, 'समलैंगिकता किसी भी व्यक्ति में 'जन्मना नहीं होती, बल्कि वह बचपन के निर्दोष कालखंड में अज्ञानतावश हो जाने वाली किसी त्रुटि के कारण उसे उसकी आदत का हिस्सा मान लिया जाता है। इस तरह यह 'नादानी में अपना लिए जाने वाली` वैकल्पिक यौनिकता है, जिसे चिकित्सकीय दृष्टि 'प्राकृतिक` या 'नैसर्गिक` नहीं मानती। जब व्यक्ति इसमें फँस जाता है तो बुनियादी रूप से उसके लिए यह एक किस्म की यातना ही होती है, जिसमें उसके समक्ष बार-बार अपना यौन सहचर बदलने की विवशता भी जुड़ी होती है। इसके अलावा, इसमें विपरीत सेक्स के साथ किए गए दैहिक आचरण की-सी संतुष्टि भी बरामद नहीं हो पाती।


वैसे, तमाम सर्वेक्षण और इस विषय पर एकाग्र अध्ययन बताते हैं कि को भी व्यक्ति 'स्वेच्छया समलैंगिक नहीं बनता। किशोरवय में पहली यौन-उत्तेजना और आकर्षण विपरीत सेक्स को लेकर ही उपजता है, समलैंगिक के लिए नहीं। न्यूयॉर्क के एलबर्ट आइंस्टाइन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ। चार्ल्स सोकाराइड्स की स्पष्टोक्ति है कि यौन-उद्योगों से जुड़े कुछ तेज-तर्रार शातिरों की यह एक धूर्त वैचारिकी है, जो समलैंगिकों को पैथालॉजिकल बताती है। इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता।


अमेरिकी समाज में समलैंगिकता की समस्या के ख्यात अध्येता डॉ. चार्ल्स अपनी पुस्तक 'होमोसेक्सुअल्टी : फ्रीडम टू फॉर` में अपना सूक्ष्म वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 'अमेरिकी समाज में यह तथाकथित समलैंगिक क्रांति` (?) बस यूँ ही हवा में नहीं गूँजने लगी, बल्कि यह कुछ मुट्ठी भर शातिर बौद्धिकों की 'मानववाद` के नाम पर शुरू की ग वकालत का परिणाम था, जिनमें से अधिकांश स्वयं भी समलैंगिक ही थे। ये लोग 'ट्राय एनी थिंग सेक्सुअल` के नाम पर शुरू की ग यौनिक-अराजकता को, नारी स्वातंत्र्य के विरुद्ध दिए जा रहे एक मुँहतोड़ उत्तर की शक्ल में पेश कर रहे थे। पश्चिम में, जब पुरुष की बराबरी को मुहिम के तहत स्त्री 'मर्दाना बनने के नाम पर, अपने कार्य-व्यवहार और रहन-सहन में भी इतनी अधिक 'पुरुषवत या 'पौरुषेय` होने लगी कि जिसके चलते उसका समूचा वस्त्र विन्यास भी पुरुषों की तरह होने लगा। नतीजतन, स्त्री की जो 'स्त्रैण-छवि` पुरुषों को यौनिक उत्तेजना देती थी, शनै: शनै: उसका लोप होने लगा। उसका आकर्षण घट गया।

कहना न होगा कि वेशभूषा की भिन्नता के जरिए, किशोरवय में लड़के और लड़की के बीच, जो प्रकट फर्क दिखा देता था, वह धूमिल हो गया। इस स्थिति ने लड़के और लड़के के बीच यौन-निकटता बढ़ाने में इमदाद की, जिसने अंतत: उन्हें 'समलैंगिकता की ओर हाँक दिया। निश्चय ही इसमें फैशन-व्यवसाय की भी काफी अहम भूमिका थी। फिर इस निकटता में अपने 'समलैंगिक-सहचर` से यौन-संबंध बनाते समय गर्भ रह जाने की महाविपत्ति से भी बचाव हो गया था। इस दोनों में से किसी को भी पिल्स लेने की आवश्यकता नहीं होती थी। तब 'एड्स` का आशीर्वाद भी नहीं था कि किशोरों को कंडोम को जेब में रखने की आज की-सी आजादी उपलब्ध होती। बहरहाल, इस यौन-मैत्री में रिस्क नहीं थी। कक्षा के 'क्लासमेट` को 'सेक्समेट` बनाया जा सकता था।

इसके साथ ही अमेरिकी समाज में एकाएक यौन-पंडितों की एक पूरी पंक्ति आगे आई , जिसमें अल्फ्रेंड किन्से, फ्रिट्स पर्ल तथा नार्मन ब्राऊन जैसे लोग थे। इन्होंने एक न स्थापना दी कि यदि ये संबंध 'फीलगुड` हैं, देन डू इट (भाजपा को पता नहीं था कि 'फीलगुड` जैसा सामासिक पद सबसे पहले सेक्स के संदर्भ में ही चलन में आया था।) इसमें भला अप्राकृतिक जैसा क्या है? 'फीलगुड` की वकालत करने वालों में विख्यात मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री हर्बर्ट मार्क्यूज भी शामिल हो गए, जिनकी पुस्तक 'वन डाइमेंशनल मैन : फ्रायड की वैचारिकी से भी अहले दर्जे का सम्मान और ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। इन सब लोगों ने संगठित होकर, अपने तर्कों के सहारे समलैंगिकता के साथ जुड़ा, 'अप्राकृतिक-मैथुन` वाला लांछन भी पोंछ दिया।

कहने की जरूरत नहीं कि यह भी एक रोचक दुर्योग ही रहा आया कि 'समलैंगिकता के इन पैरोकारों में से कुछेक लोगों के साथ समलैंगिक होने की कुख्याति भी जुड़ी थी, जो अभी तक केवल 'ऑफ दि रिकॉर्ड` थी, जिसका दर्जा कानाफूसी तक ही था-ठीक ऐसी ही कानाफूसी तक, जो भारत में हमारे समय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली उर्दू शायर फिराक गोरखपुरी के नाम के साथ चलती रही आ है, लेकिन इन लोगों ने अपने कथित बौद्धिक आंदोलन को शक्ति-सम्पन्न बनाने के लिए किया यह कि इन्होंने अभी तक 'कुटैव` समझी जाने वाली अपनी लत को महिमामंडित करते हुए सार्वजनिक कर दिया। कहा, 'हम समलैंगिक हैं और इसको लेकर हममें को अपराध-बोध नहीं है। यह हमारी इच्छितऱ्यौन स्वतंत्रता है, क्योंकि यौनांग का अंतिम अभीष्ट आनंद ही होता है- और इसमें भी हम आनंद प्राप्त करते हैं।`

बहरहाल, इस समूचे विवाद में रस लेकर, उसे तूल देने के लिए कुछेक प्रथम क्षेणी के प्रकाशकों ने 'मेक द होलवर्ल्ड गे` अर्थात् 'समूचे संसार को समलैंगिक बनाओ` के नारे को ोषणा-पत्र का रूप देकर छाप दिया। डेनिस अल्टमैन की पुस्तक 'होमो-सेक्चुअलाइजेशन आूफ अमेरिका भी इसी वक्त आ । अल्टमैन स्वयं भी समलैंगिक थे। उन्होंने १९८२ में कहा- 'समलैंगिक संबंध, अमेरिका में राज्य के सीमा से अधिक हस्तक्षेप के कारण आततायी बन चुकी विवाह-संस्था की नींव हिला डालने वाला, जबर्दस्त 'शार्ट-लिव्हड-सेक्सुअल-एडवेंचर` है। शादी के साथ जुड़ चुकी रेलू हिंसा वाले कानून के पेंचीदा पचड़ों में पड़ने से बचने का एकमात्र निरापद रास्ता है- स्विंगिंग-सिंगल हो जाना।`

बहरहाल, अब पुराना स्विंगिंग-सिंगल बनाम 'रमण-कुमार`, 'अमेरिकन-सिंगल्स` की तरह प्रसिद्ध हो चुका है। यह आकस्मिक नहीं था कि इन तमाम धुरंधरों ने व्याख्याओं का अंबार लगा दिया कि 'समलैंगिकता, निर्मम परंपरागत यौनिक-बंधन से मुक्ति का मार्ग है। 'यह मनुष्य` के स्वभाव का पुनराविष्कार है। उन्होंने कहा- 'समलैंगिक होना ठीक वैसा ही है, जैसे को व्यक्ति 'वामहस्त` होता है। लेफ्ट हेंडर।` कुल मिलाकर, 'समलैंगिकता से जुड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संकोच के ध्वंस के लिए तरह-तरह के विचारधारात्मक प्रहार किए जाने लगे। कुछ चर्चित कानूनविदों ने चर्चा में आने के लिए बहस को अपनी ओर से कुछ ज्यादा ही सुलगा दिया। लगे हाथ टेलीविजन चैनलों तथा हॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं ने इस पूरे विवाद और विषय को लपक लिया और धड़ाधड़ समलैंगिक व्यक्ति के जीवन को आधार बनाकर, उनके अधिकारों को वैध-माँग के रूप में प्रस्तुत करना आरंभ कर दिया। मुख्यधारा के नामचिु प्रकाशकों ने इसे अपने व्यापार का स्वर्ण अवसर मानकर बाजार को 'समलैंगिकता के पक्ष-विपक्ष पर एकाग्र पुस्तकों से पाट दिया। इस सबसे एक न बिरादरी बनी, जिसमें एकता का आधार बना, यौेनाचरण। यह बिरादरी 'जी-एल-बी-टी` बनाम 'गे, लेस्बियन, बाइ-सेक्सुअल तथा ट्रांस-ह्यूमन-सेक्सुअल कहला ।

इस सारे तह-ओ-बाल और गहमा-गहमी को पॉल गुडमैन जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षा के क्षेत्र में हाँक दिया और अचानक सेक्स-एजुकेशन की जरूरत और अनिवार्यता के पक्ष में लंबे-लंबे लेख तथा विमर्श होने लगे। संगोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ तथा जनचर्चाएँ होने लगीं। अमेरिकी टेलिविजन के लिए यह विषय 'दमदार और दामदार` भी बनने लगा। चैनलों पर जंग छिड़ ग । समाचार कक्षों में प्रीतिकर चख-चख चलने लगी। वही सब छोटे पर्दे पर भी दृश्यमान होने लगा। नैतिकता का प्रश्न उठाने वालों को 'होमो-फोबिया के शिकार कहकर, उनकी आपत्तियों को खारिज किया जाने लगा। उन्होंने कहा कि 'समलैंगिक` ठीक वैसे ही हैं, जैसे कि को गोरा होता है, या को काला। अत: इन्हें भी सभी किस्म की स्वतंत्रताओं को एंजाय करने का पूरा-पूरा अधिकार है। विद्यालयों में तेरह वर्ष की उम्र फलांग कर आते बच्चे ने अपने मॉम और डैड के सामने गरदन उठाकर ोषणा करना शुरू कर दी 'हे मॉम, आय`म गोइंग इन सपोर्ट आूफ गे-मूव्हमेण्ट`।

यह किशोरवय की दैहिकता से फूटती यौन-उत्तेजना का नया प्रबंधन था। उनका ब्रेनवाशिंग किया जा रहा था। ये युवा होने की ओर बढ़ने वाला वर्ग ही समलैंगिकता की सिद्धांतिकी का राजनीतिक मानचित्र बनाने वाला था। अत: यह वर्ग ही आंदोलन का अभीष्ट था। वे कहने लगे, 'समलैंगिकता आबादी रोकने में एक अचूक भूमिका निभाती है। तभी 'फिलाडेल्फिया नामक फिल्म आ , जिसमें सुनियोजित मनोवैज्ञानिक युक्तियाँ थीं, जो करुणा का कारोबार करती हु निर्विघ्न ढंग से ब्रेनवाश करती थीं। मसलन, फिल्मों में हर हत्यारे, गुंडे या बलात्कार करने वाले के जीवन के नैपथ्य में को न को करुण कथा होती ही है, जो डबडबाती आँख के आँसू से पात्र के अपराध को धो देती है। उदाहरण के लिए भारत का दर्शक कहेगा, 'भैया, जब औरत हाथ तक नहीं धरने देती तो अगला आदमी क्या करेगा- या तो हाथ आजमाइश करे या फिर 'लौण्डेबाजी`।

डॉ. चार्ल्स कहते हैं, मैंने चार दशकों के अपने चिकित्सकीय जीवन के अनुभव के दौरान यह पाया कि वे अपनी समलैंगिक जीवन पद्धति से सुखी नहीं है। दरअसल, एक चिकित्सक के समक्ष उनकी पीड़ाएँ पारदर्शी हो उठती हैं और वे सचा के बखान पर उतर आते हैं। वे उस कुचक्र से बाहर आना चाहते हैं। एक हजार में से ९९७ लोग अपनी समलैंगिकता को लेकर दु:खी हैं। बहरहाल, उपचार के पश्चात ऐसे सैकड़ों रोगी हैं, जिन्होंने विवाह रचाए और वे सुंदर और स्वस्थ्य संतानों के पिता हैं। मैंने यह भी पाया कि वस्तुत: समलैंगिक बनने में उनके माता-पिताओं की भूमिका ज्यादा रही है, जिन्होंने किशोरवय में पूर्ण स्वतंत्रता की माँग करने वाले अपने बच्चों के साथ सख्त सहमति प्रकट करने की बजाय उनकी 'स्वतंत्रता का सम्मान` करने का जीवनघाती ढोंग किया। समलैंगिकों में से अधिकांशों ने कहा कि वे झूठी स्वतंत्रता में जी रहे हैं, जबकि यह एक दासत्व ही है। यह वैकल्पिक जीवन पद्धति नहीं, सिर्फ आत्मघात है। समलैंगिकता जन्मना नहीं है। यह मीडिया द्वारा बढ़-चढ़कर बेचे गए झूठ का परिणाम है। गे-जीन थिअरी अमेरिकी समाज तथा दुनिया के साथ सबसे बड़ा छल है।

एक जगह डॉ। चार्ल्स कहते हैं, 'दरअसल हकीकत यह है कि समलैंगिको के अधिकारों की ऊँची आवाजों में माँग करने वाले मुझे चुप करना चाहते हैं, क्योंकि वे यौन उद्योग की तरफ से तथा उनके हितों की भाषा में बोल रहे हैं। वे मनुष्य के जीवन से उसकी नैसर्गिकता का अपहरण कर रहे है। वे मानवता के कल्याण नहीं, अपने लालच में लगे हुए हैं और उसी के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें प्रकृति या श्वर ने समलैंगिक (गे) नहीं बनाया है, इन्हीं लोगों ने बताया है। सोचिए, तब क्या होगा, जब सहमति से होने वाले सेक्स के लिए उम्र की सीमा चौदह वर्ष निर्धारित कर दी जाएगी। इस माँग से हमारे विद्यालय पशुबाड़े (एनीमल फार्म) में बदल जाएँगे।`

दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तान में एड्स तथा सेक्स टॉय के व्यापार के लिए राज्य स्वयं ही समलैंगिक संबंधों को कानून की परिधि से बाहर निकालने का इरादा प्रकट कर रहा है। वह समलैगिकों की 'ऑफिशियल आवाज` बन रहा है, ताकि अरबों डॉलर का योैन उद्योग यहाँ भी अपनी जड़ें जमा सके। यह सब धतकरम एड्स की आड़ में हो रहा है, जिसके चलते वहाँ की विकृति एड्स की स्वीकृति बन जाए। आज हम अभी भारत की आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को रोटी, कपड़ा, मकान तो छोड़िए शुद्ध पीने योग्य पानी नहीं दे सके हैं। ऐसे में उनकी इन लड़ाइयों को स्थगित करके समलैंगिकता की लड़ा लड़ना कितना विवेकपूर्ण कहा जा सकता है? क्या हम इसको लेकर को विवेक सम्मत विरोध नहीं कर सकते?

खबरों के आगे खिंचता नेपथ्य

दुनिया भर में, 'विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र' की तरह ख्यात भारत ने, जब एक 'नव-स्वतंत्र राष्ट्र' की तरह, विश्व-'राजनीति में जन्म लिया, तब निश्चय ही न केवल 'पराजित' बल्कि, लगभग हकाल कर बाहर कर दी गयी 'औपनिवेशिक-सत्ता' के कर्णधारों की आंखें, इसकी 'असफलता' को देखने के लिए बहुत आतुर थीं। चर्चिल की बौखलाहटों को व्यक्त करती हुई, तब की कई उक्तियाँ इतिहास के सफों पर आज भी दर्ज हैं। अलबत्ता, उनकी 'अपशगुनी उम्मीदों' के बर-खिलाफ, जब-जब इस 'महादेश' में संसदीय चुनाव हुए, तब-तब इस बात की पुष्टि काफी दृढ़ता के साथ हुई कि बावजूद 'सदियों की पराधीनता' के, भारतीय-जनमानस में एक अदम्य 'लोकतांत्रिक-आस्था' है, जो केवल उसके सोच भर में स्पंदित नहीं है, बल्कि, उसकी तमाम संस्थाओं में, वह लगभग 'दहाड़ती' हुई उपस्थित है। कहने की जरूरत नहीं कि उसके 'चौथे खंभे' में तो 'नृसिंह' की-सी शक्ति है, जो सत्ता के पेट को चीर सकती है। आपातकाल में तो उसने यह पूरी शिद्दत से प्रमाणित कर दिया था कि न केवल 'लिख कर' बल्कि इसके विपरीत 'न लिखकर' भी वह अपनी आवाज को इस तरह बुलन्द कर सकती है, जो हजारों-हजार लिखे गए लफ्जों से कहीं ज्यादा प्रखर प्रतिरोध का रूप रख सकती है। सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ने से 'मौन की तीखी अनुगूंज' राष्ट्रव्यापी बन गयी थी।


बहरहाल, इन्दौर नगर में पिछले सप्ताह 'गांधी-प्रतिमा स्थल' पर कतिपय बुद्धिजीवियों ने देश भर के कोई बीस-बाइस हिन्दी समाचार पत्रों की एक-एक प्रति जुटाकर, तमाम अखबारों के द्वारा 'अकारण' ही तेजी से किये जा रहे हिन्दी के हिंग्लिशीकरण बनाम 'क्रिओलीकरण` के जरिए, जिस 'बखड़ैली भाषा' को जन्म देने में लगे है, उसके प्रति हिन्दी भाषाभाषी पाठकोंे की पीड़ा और प्रतिकार को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करने के लिए, उनकी होली जलायी। निश्चय ही प्रतिकार की इस 'प्रतीकात्मकता' से जो लोग असहमत थे, वे इसमें शामिल नहीं हुए। उनके पास अपने तर्क और अपनी स्पष्ट मान्यताएँ थीं, जबकि अखबारों की 'होली' जलाने वालों के पास अपनी सिद्धान्तिकी थी। दोनों के पक्ष-विपक्ष में एक गंभीर विमर्श भी बन सकता था। बहरहाल, घटना छोटी-सी और निर्विघ्न सी थी, लेकिन भारतीय पत्रकारिता के विगत तिरेसठ साल के इतिहास में पहली बार घट रही थी। लेकिन देश के किसी भी हिन्दी अखबार ने (नईदुनिया को छोड़कर) यह खबर प्रकाशित नहीं की। इण्टरनेट के ब्लागों और 'फेस बुक' पर अवश्य इस पर बहस के लिए अवकाश (स्पेस) निकला लेकिन, आरंभ में उसका रूप जिस तरह की गंभीरता लिए हुए शुरू हुआ था, दूसरे दिन वह 'भर्त्सना' और 'भड़ास' की शक्ल अख्तियार कर चुका था। उसमें मनोरंजन और मसखरी भी शामिल हो चुकी थी। अत: पूरी बात विचार के दायरे से ही लगभग बाहर हो गयी।

यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि कदाचित् सम्पूर्ण हिन्दी समाचार-पत्रों ने, इस कार्यवाही को अपनी सत्ता के प्रति एक 'बदअखलाक चुनौती' की तरह लिया है। हो सकता है समाचार-पत्रों ने, चूंकि वे समय और समाज में विचार के लिए वाजिब जगह बनाने की जिम्मेदारी अपने ही हिस्से में समझते हैं, अत: वे इस कार्यवाही के खिलाफ निस्संदेह ठोस बौद्धिक-असहमति रखते हैं। लेकिन प्रश्न उठता है कि जो समाचार पत्र, वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन, `समय और समाज` की खाल खींच कर उसमें नैतिकता का नमक डालने पर तत्पर रहता है, क्या वह तिरेसठ वर्ष के अपने जीवनकाल में मात्र एक दिन किसी एक शहर में अपने पाठक की असहमति और उसका प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक बरदाश्त नहीं कर सकता? जबकि, वह इस महाकाय जनतंत्र की रक्षा का एक सर्वाधिक शक्तिशाली कवच है? क्या समूचा समाचार-जगत `विचार` के स्तर पर, व्यक्ति की सी स्वभावगत `एकरूपता` रखता है ? जबकि, वह व्यक्ति नहीं संस्था है। मुझे यहाँ याद आता है कि नेहरू के विषय में कहा जाता रहा है कि उनका अहम् काफी अदम्य था और वे अमूमन अपनी असहमति की अवमानना पर तिक्त हो जाते थे। एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। `टाइम्स ऑफ इण्डिया` के तब के ख्यात सम्पादक मुलगांवकर प्रधानमंत्री आवास पर स्वल्पाहार हेतु आमंत्रित थे और जिस सुबह वे आमंत्रित थे, ठीक उसी दिन उन्होंने नेहरू तथा `नेहरू-सरकार` के विरूद्ध अपने अखबार में बहुत तीखी सम्पादकीय टिप्पणी छाप दी। लगभग आठ बजे प्रधानमंत्री-आवास से दूरभाष पर सूचना दी गयी कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से पूर्व में स्वल्पाहार के समय प्रधानमंत्री के साथ निर्धारित भेंट निरस्त की जा रही है। यह सूचना पाते ही श्री मुलगांवकर ने नेहरू को फोन किया कि ठीक है कि आज का सम्पादकीय आपके तथा आपकी सरकार के खिलाफ है, लेकिन इसका हमारे नाश्ते से क्या लेना-देना है ? बहरहाल, नेहरू ऐसे थे कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर रहते हुए भी ठिठक कर बुद्धिजीवियों द्वारा की गई अपनी आलोचना सुन सकते थे। कदाचित् उनके इसी जनतांत्रिक धैर्य को ध्यान में रखकर दुनिया भर की प्रेस उन्हें `डेमोक्रेटिक प्रॉफेट` के विशेषण से सम्बोधित भी करती थी।

बहरहाल, इन्दौर नगर में भारतीय समाचार पत्रों को उनके भाषगत नीति को केन्द्र में रखकर उसके प्रतिरोध में होली जलाने वाली कार्यवाही को लेकर इतना आहत और क्रोधित नहीं होना चाहिए कि उनके द्वारा अकारण किये जा रहे क्रिओलीकरण के खिलाफ शुद्ध गांधीवादी प्रतिकार की खबर को वे अपने पृष्ठों पर तिल भर भी जगह न दें। यह काम निश्चय ही सम्पादक का नहीं हो सकता। तो क्या हमारे समाचार-पत्रों में एक किस्म की 'कॉरपोरेट सेंसरशिप' अघोषित रूप से आरंभ है ? जबकि, ठीक उसी दिन 'दैनिक भास्कर' ने क्रिओलीकरण के विरूद्ध लिखी गयी मेरी तीखी टिप्पणी ससम्मान और प्रमुखता से छापी और 'नईदुनिया' ने इसके दो दिन पूर्व ही 'भाषा के खिलाफ हो रही साजिश को समझो' शीर्षक से हिन्दी के 'क्रिओलीकरण' के खतरे की तरफ पाठकों नहीं, सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-भाषियों को सचेत करने वाली उस टिप्पणी को एक ऐसी सम्पादकीय टीप के साथ प्रकाशित किया, जो 'जन-आह्वान' के स्वर में थी। यह तथ्य दोनों ही अखबारों के 'खुलेपन' और 'जनतांत्रिक उदारता' के स्पष्ट प्रमाण हैं। तो अब प्रश्न यह उठता है कि क्या उनकी यह 'उदारता' इतनी ज्वलनशील है कि प्रदर्शन की आंच की खबर से भस्म हो सकती है ? हाँ, राजनीतिक सत्ताएँ 'विचार' को खतरा मानती हैं और उससे डरती भी हैं, लेकिन अखबर की ताकत तो 'विचार' ही है। 'विचार' तो उसके लगभग प्राण हैं ? फिर चाहे वे 'सहमति' के रूप में हों, या 'असहमति' के रूप में।

मैं मानता हूं कि आज हमारा समाज जितना 'सूचना-सम्पन्न' हुआ है, उसके पीछे प्रमुख रूप से 'लिखे-छपे शब्द' की बहुत बड़ी भूमिका है, 'बोले गये' शब्द वाले माध्यम की तो प्राथमिकताएँ और प्रतिबद्धताएँ केवल मनोरंजन ही है। अत: मुझे उस माध्यम से कुछ नहीं कहना। वह अभी तक परिपक्व ही नहीं हो पाया है। अधिकांश का 'समाचार-विवेक' तो साध्यकालीनों की सनसनी के समांतर ही है। वे 'सचाई' के साथ फ्लर्ट (!) करते हैं। उनका 'रिमोट' सच के किसी दूसरे 'सनसनाते संस्करण' को बदलने का उपकरण है। लेकिन सुबह के दैनिक अखबार यह मानते हैं कि वह मालिकों का कम पाठकों का ज्यादा है। इसीलिए, यदि पाठकों का एक छोटा-समूह 'संवादपरक प्रतिरोध' की संभावना के पूरी तरह निशेष हो जाने के बाद, यदि निहायत ही गांधीवादी तरीके से अपना विरोध होली जलाकर प्रकट कर रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि समाचार-पत्रों में हो रही आयी उसकी आस्था का पूर्णत: से लोप हो गया है। गांधीजी ने, जब विदेशी वस्त्रों की होली जलायी थी तो वे 'वस्त्रोत्पादन' के विरूद्ध कतई नहीं थे। ना ही वस्त्र धारण करने के काम से उनकी आस्था उठ गयी थी। वे तो प्रतीकात्मक रूप से एक अचूक सूचना दे रहे थे कि हमें 'औपनिवेशिक विचार' का विरोध करना है, जो वस्तुओं में शामिल है।

अंत में इन दिनों जिस 'शक्ति-त्रयी' की बात की जा रही है, उसमें 'सूचना' भी राज्य सत्ता के समानान्तर मानी जा रही है। 'सूचना' का निर्माण और वितरण करने वाली दुनिया की चार पांच संस्थाओं को 'सत्ता' का सर्वोपरि रूप माना जा रहा है, क्योंकि वे ही 'विश्वमत' गढ़ती या बनाती हैं। उनमें किसी भी मुल्क या उसकी सरकार को ध्वस्त करने की भी अथाह कुव्वत है, लेकिन वे अपने मुल्क के 'प्रतिरोध की आवाजों' की अनसुनी नहीं करती वर्ना, नोम चॉमस्की जैसे लोगों के विचारों की आहटें शेष संसार को सुनाई ही नहीं देती।

मुझे ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेम्बर लेन के आक्सफर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में दिये गये उनके भाषण की याद आती है। उन्होंने कहा था, 'आक्सफर्ड' ने हमें जब जब जैसा-जैसा करने को कहा हमने हमेशा ही ठीक वैसा-वैसा किया; लेकिन जब आक्सफर्ड को हमने अपने जैसा करने को कहा, उसने वैसा कभी नहीं किया और एक ब्रिटिशर की तरह मुझे इन दोनों बातों पर अपार गर्व है।

कुल मिलाकर चेम्बरलेन ने यही कहना चाहा हम ब्रिटिशर्स विचार के स्तर पर इतने उदार हैं हम अपनी प्रखरतम आलोचना का सम्मान करते हैं, लेकिन, हमें अपने मुल्क की बुद्धिजीवी बिरादरी पर भी गर्व है, जो असहमतियों को व्यक्त करने मेंे भीरू नहीं है। किसी भी देश और समाज में भीरूता का वर्चस्व बौद्धिकों में व्याप्त होने लगे, तब शायद यह मान लेना चाहिए कि वह फिर से पराधीन होने के लिए तैयार हैं।

अंत में कुल जमा मकसद यही है कि लोहिया की विचारधारा में गहन आस्था रखने वाले श्री अनिल त्रिवेदी, तपन भट्टाचार्य और जीवनसिंह ठाकुर ने भारतीय भाषाओं के आमतौर पर तथा हिन्दी के क्रिओलीकरण (हिंग्लिशीकरण) को लेकर खासतौर पर एक शांत और नितान्त निर्विघ्न प्रदर्शन किया तो वस्तुत: वे निश्चय ही इसके दूरगामी खतरों की तरफ पूरे देश और समाज को चेतस करना चाहते हैं। वे ठीक ही कह रहे हैं 'भाषा का प्रश्न' महज भाषा भर का नहीं होता, वह समूचे समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था का भी अनिवार्य अंग होता है। क्या हमें यह नहीं दिखाई दे रहा कि अमेरिका और ब्रिटेन 'ज्ञान समाज' के नाम पर, मात्र अपने सांस्कृतिक उद्योग की जड़ें गहरी करने में लगे हैं। 'कल्चरल इकोनॉमी' उनकी अर्थव्यवस्था का तीसरा घटक है, जो अंग्रेजी सीखने-सिखाने के नाम पर अरबों डॉलर की पूँजी कमाना चाहते हैं। हिन्दी, यदि संसार की दूसरी सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा की चुनौतीपूर्ण सीमा लांघने को है, तब उसे एक धीमी मौत मारने के लिए उसका क्रिओलीकरण क्यों किया जा रहा है ? अभी षड्यंत्र की यह पहली अवस्था है, 'स्मूथ डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि'। अर्थात हिन्दी के शब्दों का चुपचाप अंग्रेजी के शब्दों द्वारा विस्थापन इसे सर्वग्रासी हो जाने दिया गया तो अंत में आखिरी प्रहार की अवस्था आ जाएगी और वह होगा, देवनागरी लिपि को बदलकर उसके स्थान पर रोमनलिपि को चला देना। यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि ५ जुलाई १९२८ को 'यंग इंडिया' में जब गांधीजी ने लिखा कि अंग्रेजी साम्राज्यवादी भाषा है, इसे हम हटा कर रहेंगे, तब गोरी हुकूमत अंग्रेजी के प्रसार प्रचार पर छ: हजार पाऊण्ड खर्च करती थी (तब भी यह राशि बहुत ज्यादा थी)। गांधीजी की इस घोषणा को सुनते ही उन्होंने लगे हाथ अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार का बजट बढ़ा दिया। १९३८ में बजट की राशि थी तीन लाख छियासी हजार पाऊण्ड। यदि अखबारों की होली जलाकर प्रकट किये गये इस विरोध के बाद हिन्दी के समाचार पत्रों मे भाषा के 'क्रिओलीकरण' की गति तेज हो जाये तो यह स्पष्ट सूचना जायेगी कि भाषा संबंधी नीतियों के पीछे अंग्रेजी की 'नवसाम्राज्यवादी' शक्तियाँ दृढ़ता के साथ काम कर रही हैं।

चिकनी सतहें, फिसलते बयान

पिछले दिनों गांधी-नेहरू की ऐतिहासिक विरासत वाले राजनीतिक दल के महा-अधिवेशन में उसके एक प्रवक्ता ने स्वयं को अपनी समझ से लगभग एक अपराजेय 'तर्कऱ्योद्धा' की तरह प्रस्तुत करते हुए कहा कि 'ये अभी तक कहते आ रहे थे कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान क्यों होता है ? मगर अब आतंकवादियों में हिन्दुओं के नाम आने लगे हैं तो अब इनका क्या कहना है ?'


अखबारों में छपी अधिवेशनों की रपटों में यह भी दर्ज किया गया कि 'कथन' पर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए तालियाँ बजायीं। यानी कुल मिलाकर लगा कि वे भी इस सबसे प्रसन्न हो रही हैं कि एक 'बहु-प्रतीक्षित सुयोग' अब कहीं जाकर आया है और वे अब उन्हें इसके कारण 'मुंहतोड़' जवाब देने की स्थिति में आ गये हैं। यह स्थिति निश्चय ही उनके लिए एक राजनीतिक सुविधा है।


रपटों में आगे चल कर यह भी स्पष्ट किया गया कि अपनी राजनीतिक-विदुषी की तालियों के बाद पण्डाल के कोने-कोने से तालियाँ बज उठीं। यह तालियों का एक समवेत 'तुमुलनाद' था, जो प्रसन्नता की 'मुंहतोड़' लहर में लिपटा हुआ था। वे तालियाँ नहीं, तमाचे थे, जो 'उन' लोगों के वक्तव्य के गालों पर तड़ातड़ पड़ रहे थे।

लेकिन, यह तथ्य, यह कथन, यह दृश्य, एक भारतीय के लिए तालियाँ बजाने का नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र और समाज के लिए सिर धुनने का है, जबकि भारत के 'बहुसंख्यक समुदाय' से आतंकवादी सामने आने लगे हैं। यह एक भयानक सूचना है, जो भारतीय जनतंत्र की धर्म-निरपेक्ष देह में कंपकंपी पैदा कर रही है।

अभी तक देश के समाचार-पत्रों तथा तमाम पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों पर समाजशास्त्रियों की जमातें अपने अत्यन्त 'सूक्ष्माति-सूक्ष्म' विवेचनों और विश्लेषणों के जरिये यह बात बार-बार बताती और समझाती आ रही है कि अल्पसंख्यकों के बीच व्याप्त 'असुरक्षा-बोध' ही वह मुख्य कारण है, जो 'आतंकवाद' को जन्म दे रहा है, तो क्या अब भारत का 'बहुसंख्यक-समुदाय' भी असुरक्षित अनुभव करने की स्थिति में आ गया है, जहाँ से 'आतंकवादी' बरामद होने लगे हैं ? फिर यह भी कहा जाता रहा है कि अभी तक भारत में सरकारें हमेशा 'बहुसंख्यकों' की ही रही हैं और इसलिए 'बहुसंख्यक' की तरफ से उनकी सुरक्षा में 'राज्य' ही प्रस्तुत होता है। बहरहाल, इस स्थापना से यह तर्क सामने आता है कि क्या 'राज्य' ने अब बहुसंख्यकों के हितों की रक्षा से अपने हाथ झाड़ लिये हैं ? और अब वह बहुसंख्यकों को भुला चुका है ? कहने की जरूरत नहीं कि एक शांत और लगभग निरावेशी-सा रहा आया 'समुदाय' यदि इस दुरावस्था तक पहुंच रहा है तो निश्चय ही इसके कारण सत्ताओं की नीतियों के भीतर ही छुपे पड़े हैं और संयोग से कांग्रेस के पास ही सत्ता के संचालन का लम्बा कालखण्ड रहा है। बीच-बीच में कांग्रेस यदि सत्ता से बाहर रही तो भी वह ठीक उतनी ही देर के लिए बाहर रही, जब कक्षा में अपना 'होमवर्क' (?) पूरा न करने के लिए शिक्षक एक छात्र को बाहर खड़ा कर देता है। मतदाता ही जनतंत्र में सबसे बड़ा शिक्षक होता है और कांग्रेस हमेशा से ही उसे लुभाने में माहिर रही है।


इसके अतिरिक्त उसमें मतदान केन्द्रों और कक्षों को प्रयोगशाला बनाने की बुद्धि और चतुराई दोनों रही है। बहरहाल, अब यदि 'बहुसंख्यक समुदाय' में भी कैंसर कोशिकाओं की तरह आतंकवाद पनप रहा है, तो यह भी उस राजनीति का ही हासिल है, जो 'दल को देश' और 'देश को दल' बनाने और बदलने के असमाप्त प्रयोग में लगी रही है। देश और समाज उसकी प्राथमिकताओं के अंतिम क्रम मे आता रहा है। इसमें सभी एक-दूसरे से स्पर्द्धा में लगे रहे हैं।

यहाँ एक बात सहसा याद आ रही है कि अल्पसंख्यकों द्वारा यह भी कहा जाता है कि वे हमेशा दंगों के भय से तभी मुक्त रहते हैं, जब उनके यहाँ राज्य में गैर-कांग्रेसी सरकार रहती है। क्या यह टिप्पणी साम्प्रदायिक समस्या के हल किये जाने में नीयत की खोट की तरफ संकेत नहीं करती ? क्या यह हकीकत नहीं रही है कि कांग्रेस की राजनीतिक युक्तियाँ हमेशा से ही इतनी और ऐसी उलझी रही आयी हैं कि 'हिन्दुत्व' का राजनीतिक विरोध करते हुए वे धीरे-धीरे सम्पूर्ण 'हिन्दू विरोध' में चले जाते हैं। अलबत्ता कहें कि 'हिन्दुत्व की भर्त्सना' कांग्रेसी होने की अनिवार्य पहचान है।

दरअस्ल कांग्रेसी कान को 'हिन्दुत्व' के भीतर से सिर्फ वही आवाज ऊँचे 'सुर' में सुनाई देती है, जिसे वह 'सुनना' चाहती है। उन सुरों को तो कतई नहीं, जो 'हिन्दुत्व' के 'वाम' हो सकते हैं। ऐसे 'सुर' उसके लिए हमेशा निषिद्ध सुर रहे हैं। वे हिन्दुत्व की 'पहचान' और 'विरासत' के बारे में हर आदमी को घोर दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक सिद्ध करने लगे। एक जरूरी धैर्य के साथ कान लगा कर यदि उस क्षीण-सी आवाज को सुना जाये तो संभव है, एक 'विश्वसनीय' अवधारणा के लिए वाजिब जगह निकल सके, लेकिन कांग्रेस ने तो अपने कान उस ओर से हमेशा के लिए बंद क लिये हैं और जब कांग्रेस 'प्रवक्ता' की जबान से बोलती है, तो लगने लगता है कि क्या उसने 'विवेक' को विदाई दे दी है। वह स्कूली बच्चों की वाद-विवाद प्रतियोगता की ऐसी मिसाल प्रस्तुत करने लगती है, जो मसखरी से ऊपर नहीं जाती। पिछले ही दिनों दल के इन्हीं वाचाल प्रवक्ता ने सारे 'बहुसंख्यक-समुदाय' को यह कह कर चौंका दिया था कि मुम्बई के ताज हादसे के ठीक पहले शहीद हेमन्त किरकिरे ने उन्हें फोन पर अपना भय व्यक्त किया था कि वे हिन्दू-आतंकवादियों से खतरा अनुभव कर रहे हैं। बाद इसके अपनी 'अबौद्धिक-वाचालता' को और अतिरेकी बनाते हुए आगे यह भी कहा कि 'मुसलमानों के लिए वे भगवान हैं।' इससे यह तो साफ हो गया है कि उन्हें दोनों ही समुदायों की 'धार्मिकता की रत्ती भर समझ नहीं है। वह केवल 'मुंहतोड़' मुहावरे में 'जीभ तोड़` भाषा बोल रहे हैं ? यह विचार के अधकचरेपन की अराजकता का सर्वाधिक उपयुक्त प्रमाण है। क्योंकि इस्लामिक-दर्शन के हिसाब से किसी मनुष्य को खुदा का दर्जा नहीं दिया जा सकता। फिर एक पुलिस अधिकारी इस्लाम के अनुयायियों का खुदा कैसे हो सकता है ?

याद रखना चाहिए कि 'हिन्दुत्व' उस तरह से 'मोनोलिथिक' नहीं है, जिस तरह से इस्लाम या ईसाई धर्म 'एक ईश्वर और एक पवित्र-पुस्तक' के सहारे है। हिन्दुत्व का भी 'वाम' हो सकता है, क्योंकि पूर्व में भी उसने 'आत्म विभाजन' के लिए जगह बनायी। 'आर्य-समाज' या 'ब्रह्मो-समाज' उसकी उसी क्षमता के द्योतक रहे हैं। याद रखिए, उत्तर-भारत में वामपंथ मंे आयी पीढ़ी के लोग, आर्य-समाजी परिवारों से आये थे। भगतसिंह, यशपाल, भीष्म साहनी आदि लोगों की पारिवारिक पृष्ठभूमि यही थी।

बहरहाल, विडम्बना यही है कि पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस द्वारा परिभाषित और प्रचारित 'राजनीतिक दृष्टि' के चलते हुआ यह कि हिन्दूवादी अपने 'हिन्दुत्व' की 'संरचनागत-आंतरिकता' के आधार पर उसकी परिभाषा करने के बजाय 'इस्लाम से होड़ लेती परिभाषा' गढ़ना चाहने लगा। निश्चय ही इसने इस्लाम को चोट नहीं पहुंचायी, बल्कि 'हिन्दुत्व' के सहिष्णु और समावेशी रूप-स्वरूप को बुरी तरह से आहत किया। कांग्रेस की इसी चरित्रगत चूक ने दक्षिणपंथी दलों के लिए ऐसी 'ऊहापोह' में फंसे 'बहु-संख्यक समुदाय' के मतदाताओं को 'पोस्टडेटेड चैक' में बदल दिया। वह चुनावों के समय बेशक भुनायी जा सकने वाली अचूक हुण्डी सिद्ध हुआ। इसके लिए कांग्रेस की वह भाषा, दृष्टि और नीति ही जिम्मेदार रही है, जिसने 'धर्मान्धता' से लड़ने के बजाय 'धार्मिकता' से लड़ना शुरू कर दिया। कांग्रेस में गांधी और नेहरू के द्वारा गढ़ी गयी 'धर्मनिरपेक्षता' की अवधारणा की धज्जियाँ ऐसी ही समझ के चलते उड़ायी गयी है। निश्चय ही कांग्रेस के कुंवर की भी समझ यही है, प्रवक्ता तो सिर्फ उनके 'इको-प्वाइण्ट' हैं, हाँ ऐसी फूहड़ प्रतिध्वनियाँ गूंज-गूंज कर भारतीय बहुसंख्यक के कानों में प्रदूषण का प्रतिशत बढ़ाती रहने वाली है।

हमारे समय में भ्रष्टाचार का भाष्य


भारतीय व्यवस्था एक ऐसा महा आख्यान है, जिसमें संजय की दिव्य-दृष्टि भी है और धृतराष्ट्र का अंधापन भी। दुर्भाग्य यह है कि इस शताब्दी का संजय संघर्ष के बखान के बजाय नाच और गानों में आनंदवाद की जय-जयकार कर रहा है। व्यवस्था के कोठे पर भ्रष्टाचार का मुजरा देखता हुआ, वह मनोरंजन में डूबा हुआ है। वह प्रश्न करने के बजाय रेडीमेड उत्तरों को लेकर संतुष्ट है। क्या यह पीढ़ी नये प्रश्नों के ताज़ा उत्तर खोजने की कोशिश करेगी? प्रस्तुत है भ्रष्टाचार के चरित्र और उसकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर एक विवेचनात्मक टिप्पणी।


शताब्दियों से हमने खुद को लगातार एक त्रासद प्रश्न के उत्तर की खोज में जोते रखा- और, वह प्रश्न यह है कि मनुष्य अंतत: भ्रष्ट क्यों हो जाता है ? बहरहाल, अब जबकि भूमण्डलीकरण की इस ताज़ा हड़बोंग के साथ भारतीय समाज में, वर्चस्व का एक नया चरण आरम्भ हो चुका है; इसमें 'ज्ञान`, 'दौलत` और 'हिंसा` की एक ऐसी दुरूह त्रयी गढ़ी जा रही है, जो 'भ्रष्टाचार` और 'सत्ता` के मध्य अटूट और अंतरंग सम्बन्ध बनाती है। इसलिए, वित्तीय पूँजी के इस अस्थिर कालखण्ड में सत्ता का चरित्र उत्तरोत्तर बदलता ही चला गया है। यह नया सत्ता-विमर्श है, जो एक ज़ब़रदस्त ज़िरह की माँग करता है। महान् अर्थशास्त्री कौटिल्य ने जिस तत्व को आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व 'राज्य के विकास को अवरूद्ध करने वाले घटकों में गिना था`- वह थी, घूसखोरी। इसे उन्होंने `भ्रष्ट आचरण` की संज्ञा दी थी। उन्होंने कहा था, 'राज्य निर्धारित सार्वजनिक पद का निजी लाभ के लिए दुरूपयोग-भ्रष्टाचार है।` इसलिए ऐसे कर्म की घोर निंदा की जानी चाहिए और इसके लिए एक निश्चित दण्ड विधान भी होना चाहिए।


यहाँ प्रसंगवश हम एक चीनी यात्री के उस विस्मय को याद कर सकते हैं, जब वह चाणक्य को देखता है कि रात में उसने अपना अभी तक जल रहा 'दीया` बुझाया और दूसरा दीया जला लिया। बावज़ूद इसके कि पहले में तेल शेष था। चाणक्य का जवाब था कि अभी तक वह राज्य का कामकाज निपटा रहा था और वह जलता हुआ दीया राज्य का था- निजी कामकाज के लिए उसका उपयोग भ्रष्टाचार की श्रेणी में आयेगा और चूंकि अब मैं अपना खुद का कामकाज आरम्भ करने वाला हूं, इसलिए, मेरा निजी दीया जला रहा हूं। कहने का कुलज़मा मक़सद यह कि यह उदाहरण 'राज्य में सत्ता प्राप्त व्यक्ति के नैतिक आचरण के तत्कालीन प्रतिमान को रेखांकित करता है`, जहाँ आत्मानुशासन के लिए निर्धारित वर्जनाएँ रही आयी थीं।


दुर्भाग्यवश नई सदी में विदेशी पूँजी के देसी पैरोकारों ने भ्रष्ट आचरण का एक नितान्त नया और विचित्र संस्करण तैयार कर लिया है। भ्रष्टाचार की, नैतिकता की दृष्टि से तैयार की गई पूर्व की दीर्घकालिक परिभाषाएँ निर्ममता के साथ ध्वस्त कर दी गई हैं। बहरहाल, भ्रष्टाचार को लेकर अब बगै़र उत्तेजित हुए, एक सामाजिक स्वीकृति तैयार कर दी गई है। रिश्वत ऊपर की कमाई का गौरव बन गई है। ऊपर की और अतिरिक्त कमाई ऐसी है जैसे मुकुट में मोरपंख। विदेशी पूँजी के प्रताप के प्रपात मे नहाते हुए 'नैतिकता` से मैल की तरह मुक्ति पा ली गई है। बाजार की अधीरता के सामने हमारा सर्वस्व स्वाहा हो गया है। मसलन, अब रिश्वत की एक नई व्याख्या की जा रही है कि रूढ़-नैतिकतावादी लोग अर्थशास्त्र की गति को नहीं जानते। व्यापार पूँजी के प्रवाह के साथ चलता है। उसे हर क्षण गति चाहिए। नैतिकता एक स्पीडब्रेकर है। वह अवरोध है। इसलिए उसे अविलम्ब हटाया जाना चाहिए।


'रिश्वत` शब्द नैतिकतावादियों के द्वारा पूँजी की गति पर लगाया गया लांछन है। दरअस्ल, जिसे आप रिश्वत कहते हैं, वह तो 'स्पीड मनी` है। वह काम की इच्छित गति के लिए ल्युब्रिकेण्ट की भूमिका अदा करती है। रिश्वत कह कर उसे बदनाम न किया जाये। यह चंचला पूँजी की नैतिकी है, जिसमें रिश्वत राज्य के विकास को अवरूद्ध नहीं करती, बल्कि उसे आसान बनाती है। कहने की जरूरत नहीं कि, यह भारत के व्यापार और उद्योगों से जुड़े अभिजनों (इण्डस्ट्रियल-इलिट) के लिए कानून की जटिलता से मुक्ति का मार्ग है। दरअस्ल, मुक्त अर्थव्यवस्था के शिकंजे में वह अनिश्चतताओं से बुरी तरह घिर गया है। लेस्ली पामर ने हाँगकांग, भारत और इण्डोनेशिया के समाजों के उच्च वर्ग में व्याप्त भ्रष्टाचार का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए कहा कि यह वर्ग, एक किस्म की 'मेन्युफैक्चर्ड-अनसर्टेनिटीज़` के बीच फंस गया है। अर्थात् अप्रत्याशित अनिश्चितताओं से घिर गया है, जिसके चलते वह भविष्य की आश्वस्ति की आतुरता में, रिश्वत को कामकाज की जटिलता को कम करने का कारगर हथियार मानता है।


रिश्वत आसानियाँ पैदा करती है, जबकि विरोधाभास यह है कि समाज में भ्रष्टाचार की व्याप्ति की सबसे ज्यादा निंदा भी यही वर्ग करता है। वह उसे समाप्त करने का हल्ला भी करता है, और उसको ऑक्सीजन भी यही वर्ग देता है। अब नैतिकता को, रिश्वत न दे पाने वाले लोग, रिश्वत न ले पाने वाले लोगों का छातीकूट रूदन बताते हैं। उन्होंने मान लिया है कि नैतिकता एक अनुर्वर किस्म का उपहासात्मक उपदेश है। नैतिकता की, ऊँचे आवाज में बात करने से सत्ताएँ बनती हैं, लेकिन नैतिकताओं को अमल में लाने से सत्ताएँ ढह जाती है। अत: उससे एक निश्चत दूरी जरूरी है। नैतिकता को किफायती नैतिकता में बदलना आवश्यक है। क्योंकि इस बहुराष्ट्रीय निगमों के वर्चस्व वाले बाजार-समय में कार्पोरेटी चिन्तकों के द्वारा बार-बार कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार 'एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्था` में आवश्यक प्रतिस्पर्धा को बढ़ाता है। नजीजतन, इससे व्यवस्था की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। रिश्वत की ऊर्जा व्यवस्था को स्फूर्त बनाती है। रिश्वत पाकर काम करने वाला कर्मचारी अतिरिक्त सक्रियता दिखाने लगता है। इसलिए कुछ लोग रिश्वत की वैधता की भी वकालत करते हैं। यह वैसा ही है जैसे समलैंगिकता को आबादी रोकने में कारगर बताया जाता है। जबकि हकीकत में यह चंचला पूँजी की विकृत नैतिकी ही है।


जैसा कि, मैंने ऊपर कहा कि भारतीय अभिजन शायद इतिहास की सर्वाधिक अनिश्चितताओं के दौर से गुजर रहा है, ऐसे में असुरक्षा की जो भावना पैदा होती है, वह उसमें कानून के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा करती है। क्योंकि, उन्होंने कानून को विकास का अड़ंगा बता दिया गया है। जिस देश और समाज की व्यवस्था में, 'वर्क टू रूल`, ईमानदारी के प्रति वचनबद्धता नहीं है, बल्कि एक क़िस्म की धमकी है। वहाँ 'वर्क टू रूल` का अर्थ, व्यवस्था के इंजिन को ठप कर देने जैसा है। 'वर्क टू रूल` का अर्थ यह हुआ कि सामान्यजन के पास यह संदेश भेजना है कि काम अब कानून के मुताबिक होगा, तो काम होना ही असंभव हो जायेगा। रिश्वत कानून के अड़ंगे को फाँदने में मदद करती है। ज़ाहिरा तौर पर देखें तो शायद भारतीय समाज बाहर से सांस्कृतिक 'एकरूपता` का भ्रम पैदा करता है, लेकिन हकीकतन हमारा पूरा समाज, बदलते समय में धीरे-धीरे, दो स्पष्ट भागों में बँट चुका है।


एक वह हिस्सा जहाँ पूँजी का अपार आधिक्य है और दूसरा वह हिस्सा, जहाँ पूँजी का अपार अभाव है। यह नया बाइनरी अपोजिशन है। 'हम` और 'वे` का नया बँटवारा। और दोनों ही एक दूसरे से युद्धरत है। एक के लिए उसका 'पेट` ही उसकी नैतिकी है, जबकि दूसरे के लिए उसकी 'पूँजी` ही उसकी 'नैतिकी` है। इन्हीं के अनुसार उनके वर्ग-आचरण तय होते हैं- पेट के लिए कोई आचरण भ्रष्टता की श्रेणी में नहीं आता, ठीक उसी तरह पूँजी के लिए भी सभी आचरण भ्रष्टता की परिभाषा से बाहर है। पूँजी अपशिष्ट से मिले या अपवित्र से, कोई आपत्ति नहीं। मुझे अक्सर बचपन में पढ़ी एक कहानी की बिल्कुल पहली पंक्ति याद आती है, जो इस तरह थी 'राजू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।` प्रथम पंक्ति में ही एक वर्गद्रोही दृष्टि छुपी हुई है, जो प्रकारान्तर से यह बताती है कि गरीब तो बेईमान और भ्रष्ट होता ही है। यह तो राजू की निजी विशेषता थी कि वह गरीब होने के बावजूद ईमानदार था। बहरहाल, यही वह दृष्टि है, जो बार-बार यह बताने का अथक प्रयास करती है कि गरीबी ही भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है। इसे प्रवृत्तिमूलक बताकर मुक्ति पा ली जाती है। वे छूट जाते है, जो 'पूँजी`, 'ज्ञान` और 'हिंसा` की त्रयी के हिस्से हैं। वे प्रतिष्ठा-मूल्य बन जाते हैं।


राबर्ट लेईकेन का विश्लेषण इससे उलट है कि आधे-अधूरे सामाजिक और आर्थिक सुधार भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। जहाँ सुधार नहीं किया जा सकता, राज्य उस क्षेत्र में जनाकर्षण (पॉपुलर) वाले कार्यक्रम शुरू करता है और यहीं से भ्रष्टाचार का संस्थानीकरण शुरू हो जाता है। ऐसे में 'व्यक्ति' अकेला, और संस्था संगठित होती है। नतीजतन, व्यक्ति समर्पण करने लगता है। संघर्ष की संभावना धूमिल हो जाती है और रिश्वत उसे एकमात्र संकटमोचक अस्त्र की तरह संभावनापूर्ण दिखाई देती है। यह पॉवर स्ट्रक्चर का आन्तरिक तर्क बन जाती है। भारत में अर्थशास्त्रियों की एक नई नस्ल भ्रष्टाचार को शीतयुद्धोत्तर विश्व में एक अन्तर्राराष्ट्रीय महामारी की तरह बता रही है, जिससे बचना संभव नहीं है। उसे वे 'ग्लोबल-फिनामिना` बताते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने इसमें श्रीवृद्धि करने में मदद की है। जबकि, भ्रष्टाचार स्वदेशी हो या विदेशी, वह मूलत: राज्य के विकास को अवरूद्ध करके उसे सामाजिक परिवर्तन की व्याधिग्रस्त व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत कर देता है।


बहरहाल, इतने सारे घनमथन और विवेचन के बाद प्रश्न यहीं आकर टिकता है कि आज जितना भ्रष्टाचार सार्वजनिक क्षेत्र में बताया जाता है, क्या निजी क्षेत्र में उससे कम है ? क्या दोनों के बीच एक गहरी अन्तर निर्भरता नहीं है ? वित्तीय पूँजी के निष्करूण युग ने भ्रष्टाचार को ही एक संस्थान का रूप दे दिया है और उसके संस्थानीकरण में वेल्थ-वायलेंस और नॉलेज की त्रयी काम कर रही है। उसने राजनीति को भी पूँजी निवेश का नया और प्रतिस्पर्धी परिक्षेत्र बना दिया है। ऐसे में भ्रष्टाचार के विरूद्ध मात्र नैतिक-तर्कों के तीरों से कुछ नहीं होगा। सामाजिक विषमता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायेगी, जो वर्ग संघर्ष की भी शक्ल नहीं ले पायेगी। चूंकि बाजारवाद ने अपनी लोक-लुभावन रणनीति से जनता में विषमताओं के लेकर उठने वाली आपत्तियों को छीन लिया है। इसलिए, जनआंदोलन की भूमिका अनुर्वर हो चुकी है। मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक बाजार ने उसे अधीन कर लिया है। वह उसकी चाकरी में लगा हुआ है। इसलिये वह आंदोलनों नहीं उत्सवों को महत्व देता है। हर समय एक निरन्तर एक उत्सवीकरण जारी है और सारी समस्याएँ मूल्यों के विलोपन से जुड़ चुकी है।


सामूहिकता और समाज केन्द्रितता को विकास की अवधारणा से हटाकर उसे 'व्यक्ति केन्द्रित` बना दिया गया है। सब अकेले हैं और सबको आसमान छूना है। सामूहिकता से नहीं, अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य से। ऐसे में साधन की शुचिता का कोई मूल्य नहीं है। सिर्फ साध्य ही सामने है। व्यक्तिगत उन्नति की 'अधीरता` एक उन्माद की तरह चौतरफा फैल गयी है, वही भ्रष्टाचार के लिए सबसे अधिक उर्वर है। बस पूँजी चाहिए, फिर वह कहीं से भी हो, उसमें नैतिक अनैतिकता का प्रश्न अप्रासंगिक है। सब जल्दी में है, सबको कहीं न कहीं पहंुचना है। ऐसे में नैतिकता का स्पीडब्रेकर किसी को बर्दाश्त नहीं। आँतें खराब हो तो चेहरे मेकअप करने से काम नहीं चलता। अर्थव्यवस्था में भी कास्मेटिक सर्जरी काम नहीं करती।


आज मूल्यों की स्थिति यह है कि वे शाश्वत हैं या सापेक्ष, परम्परागत हैं या परिवर्तनशील- वे सब हमारे समय की हकीकत से युद्धरत है। वे जख्मी आंख से मनुष्य की ओर टकटकी लगाकर लगातार ताक रहे हैं कि उन्हें उम्मीद है कि उनको बचाने की बेकली में में दौड़ते हुए कुछ आगे आएँगे, लेकिन विडम्बना यह कि आने वाले उसे बचाने नहीं बल्कि उसको दफ्ऩ करने के लिए दौड़कर आ रहे है। कर्मठता संकटग्रस्त है और ईमानदारी प्रश्नांकित। मूल्यों के हनन का यह, वह सर्वग्रासी दौर है, जिसमें अभी तो एक शून्य ही बन रहा है। सत्य-असत्य के युद्ध में सत्यमेव जयते का विश्वास पिछली सदी की पीढ़ी की धरोहर थी और सबसे अधिक आश्वस्त करने वाली उक्ति थी, वह चिंदा-चिंदा हो चुकी है। क्या एक उज्ज्वल भविष्य की पताकाओं को हम ऐसे ही चिथड़ा-चिथड़ा होते देखते रहेंगे, कि ठिठक कर कुछ करेंगे भी।


विडम्बना यह है कि व्यवस्था की महागाथा में धृतराष्ट्र का अन्धापन भी होता है और संजय की दिव्यदृष्टि भी। लेकिन, २१ वीं सदी की महाभारत में संजय सिर्फ वित्तीय पूँजी का मुजरा देख रहे हैं और दिखा रहे हैं। वे तालियाँ कूट रहे हैं। मुटि्ठयाँ बांधकर संघर्ष के संकल्प को उन्होंने घाटे का सौदा समझ लिया है। और दुर्भाग्यवश नई पीढ़ी सौदागर बनने का ही स्वप्न बुन रही है। यह भूल कर कि जब भविष्य का सौदा होगा, तो उसमें हमारे 'नैतिक अतीत` की बहुत बड़ी भूमिका होगी। याद रखिये नैतिकताएँ कभी भी दफ्ऩ नहीं होती- वे कब्र से उठ खड़ी होती हैं और वे पीढ़ियों से पूछती है कि तुम भ्रष्ट क्यों हो रहे हो ? भ्रष्टाचार का तुम कौन-सा भाष्य करने जा रहे हो ?